हे कैलासपति शम्भो ! क्या कभी ऐसा हो सकेगा कि मैं आपके दर्शन पाकर , आपके चरणयुगल को हाथों से पकड़ कर , उन्हें अपने सिर , आँखों , और ह्रदय से लगाकर , उनका आलिड्र .न कर , खिले कमल की सुगंध के समान सुगंध को सूँघकर , ब्रह्या आदि देवगणों के लिये भी दुर्लभ आनन्द का ह्रदय में अनुभव कर सकूँगा । ॥२६॥
कमर्थ दास्येऽहं भवतु भवदर्थं मम मन ः ॥२७॥
जब स्वर्णगिरि सुमेरु भगवान् शिव के निकट हो , धनपति कुवेर पास हों , घर में स्वर्ग का कल्पवृक्ष , कामधेनु गाय , और चिन्तामणि का समूह हो , शिर पर अमृत वर्षा करनेवाला शीतल चन्द्रमा हो , और चरणों में सारे मड्र .ल हों -ऐसे ऐश्वर्य -सम्पन्न आपको , हे कैलासपति ! मैं क्या अर्पण कर सकता हूँ ? मेरा मन ही आपको अर्पण है । ॥२७॥
सायुज्यं मम सिद्वमत्र भवति स्वामिन्कृतार्थोऽस्म्यहम् ॥२८॥
हे शिवशम्भो ! आपके पूजन से मुझे सारुप्य मुक्ति , "शिव , शिव , महादेव " आदि नामों के संकीर्तन से सामीप्य मुक्ति , शिवभक्तों के सत्संग और उनके साथ संभाषण से सालोक्य मुक्ति , और चराचरात्मक आपके शरीर का ध्यान करने से सायुज्य मुक्ति , यहीं , इसी जीवन में , सिद्व हो जायगी । उमापती स्वामी ! में धन्य , कृतार्थ हूँ । ॥२८॥
ऐस . बालकृष्णन् ने शिवानन्दलहरी की अपनी टीका में जगद्रुरु काच्ची परमाचार्य का मत उद्वृत करते हुए बताया है कि इस पद्य में आचार्य शंकर अपने बारे में कह रहे हैं । आचार्य शंकर भगवान् शिव के अवतार प्रसिद्व हैं । ’शंभु ’ का अर्थ है क्रियारहित कल्याणकारी , और ’शंकर ’ का अर्थ है शक्ति -युक्त क्रियाशील कल्याणकारी । यह क्रियाशीलता अवतार में प्रकट होती है । आचार्य शंकर के जगद्रुरुरुप में यह कल्याणकारी अवतार प्रकट हुआ है । ॥२९॥
हे चन्द्रमौलि ! यदि मेरे पास सहस्त्ररक्ष्मि सूर्य की क्षमता हो तो मैं आपके परिधान फैला सकूँ , यदि विष्णु जैसी सर्वव्यापकता हो तो पुष्पार्चन कर सकूँ , यदि वायू जैसी सर्व -वाहकता हो तो नीराजन कर सकूँ , यदि अग्नि के स्वामी इन्द्र जैसी सामर्थ्य हो तो नैवेद्य पका सकूँ , यदि हिरण्यगर्भ पर स्वामित्व हो तो आपके पात्र बना सकूँ । हे त्रिलोकी गुरु , पशुपतिनाथ स्वामी ! आपकी सुश्रूषा के लिये जो क्षमता चाहिये वह मेरे पास नहीं है । निस्सीम की सेवा के लिये सीमित साधनों से क्या होता है ? आपकी सेवा के लिये तो सूर्य , विष्णु , वायु , अग्नि आदि देवगण ही समर्थ हो सकते हैं । ॥३०॥