पिछले पद्य की भाँति , इस पद्य में नीलकण्ठ नटराज और वर्षा ऋतु में , बादलों की गर्जना और विजली के चमक में मुग्ध मोरनी के सामने नाचते हुए मोर का साथ -साथ वर्णन है ।
प्रदोष काल में (गर्मी की समाप्ति के बाद वर्षा ऋतु में ) महाविष्णु द्वारा बडे़ ढ़ोल के वजने के साथ (बादलों की गर्जना के साथ ), देवों की विजली -जैसी चमकती नेत्र पंक्तियों के समक्ष , परितुष्ट भक्तों की अश्रुधाराओं के बीच (वर्षा में पानी से भीगते हुए ), शिवा (मयूरी ) के सामने नृत्य करते हुए नटराज शिव की मैं पूजा करता हूँ । उनके दिव्य ताण्डव नृत्य की जय । ॥५४॥
श्रीशैलनिवासी भ्रमराम्बिका पति भगवान् शिव भ्रमरराज के समान हैं । जिस प्रकार भ्रमर अपनी प्रियतमा को रिझाने के लिये नृत्य करता है , भगवान् शिव अपने पार्षद भृड्री . (अथवा ऋषि श्रेष्ठ भृड्री .) के लिये नटराजरुप में नृत्य करते हैं । भ्रमर गजराजों के मद का पान करते हैं , वैसे ही भगवान शिव ’करिमदग्राही ’, गजदानव का गर्व खण्डित करने वाले हैं । भ्रमर वसन्त ऋतु में आनन्दित होते हैं , भगवान शिव महाविष्णु के साथ आनन्दित होते हैं । भ्रमर गुंजार करते हैं , भगवान शिव ओंकार के नाद से प्रसन्न होते हैं । भगवान शिव साक्षात् कामदेव की कान्ति को भी लज्जित करने वाले हैं । सत्पुरुषों के रक्षक शिव मेरे ह्रदय -कमल में निवास करें । ॥५१॥
हे नीलकंठ महादेव ! मेरा चित्तचातक सदा आपके करुणारुपी अमृत बरसाने वाले जलधर की अभीप्सा करता है । जलधर की भाँति , हे शंभो ! आप भयंकर विपदारुपी गीष्म का अन्त करने में प्रवीण हैं । जलधर की भाँति आप विद्यारुपी खेती की उपज के लिये लाभदायक हैं । देवता आपकी सेवा में रहते हैं , और आप इच्छावपुधारी हैं । भक्तरुपी मयूर आपके चारों ओर नाचते रहते हैं । आप कैलास गिरि पर निवास करने वाले हैं । विजली -सी आपकी चच्चल जटाएँ हैं । ॥५२॥
मैं मोर के समान नीलकण्ठ भगवान शिव का भजन करता हूँ । नीलग्रीव शिव का मुकुट आकाश है , जैसे मोर की शिखा होती है । भगवान् शिव सर्पराज का आभूषण धारण करते हैं ; मोर सर्पो के बलवान शत्रु होने के कारण उनपर शासन करते हैं । शिवजी श्रृंगार किये हुए रहते हैं ; मोर अपनी रंग -विरंगी पूँछ से सुशोभित होता है । जो भगवान के सामने नतमस्तक होते हैं , उन्हें वे प्रणव मन्त्र (ऊँ ) द्वारा उपदेश देते हैं ; मोर केकी ध्वनि करता है । गिरिजा भवानी को देखकर भगवान शिव आनन्द में नृत्य करते है ; मोर बादलों को देखकर नाचता है । ॥५३॥
पिछले पद्य की भाँति , इस पद्य में नीलकण्ठ नटराज और वर्षा ऋतु में , बादलों की गर्जना और विजली के चमक में मुग्ध मोरनी के सामने नाचते हुए मोर का साथ -साथ वर्णन है ।
प्रदोष काल में (गर्मी की समाप्ति के बाद वर्षा ऋतु में ) महाविष्णु द्वारा बडे़ ढ़ोल के वजने के साथ (बादलों की गर्जना के साथ ), देवों की विजली -जैसी चमकती नेत्र पंक्तियों के समक्ष , परितुष्ट भक्तों की अश्रुधाराओं के बीच (वर्षा में पानी से भीगते हुए ), शिवा (मयूरी ) के सामने नृत्य करते हुए नटराज शिव की मैं पूजा करता हूँ । उनके दिव्य ताण्डव नृत्य की जय । ॥५४॥
जो सबके आदि कारण हैं , अमिताभ हैं , वेदों से उनके बारे में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है , जो भक्ति द्वारा प्राप्य हैं , ज्ञान और आनन्द स्वरुप हैं , तीनों लोकों के संरक्षण के उद्योग में तत्पर हैं , समस्त योगियों के ध्यान के विषय हैं , देवता लोग उनकी स्तुति करते हैं , जो मायापति हैं , जो अद्भभुत ताण्डव नृत्य में आनंदित हैं , उन जटाधारी शिव -शंभु के लिये मेरा यह नमस्कार । ॥५५॥