हे उमानाथ ! मैंने पूजा की सारी आवश्यक सामग्री एकत्र कर ली । तब भी मैं आपकी पूजा कैसे करुँ ? मैं ब्रह्या की भाँति हंस अथवा विष्णु की भाँति शूकर रुप भी धारण नहीं कर सकता । यह मेरे लिये दुर्लभ है । हे सर्वव्यापी प्रभु ! न तो आपके मस्तक तक पहुँच सकता हुँ न आपके चरण कमलों तक । मैं तो क्या , ब्रह्या और विष्णू भी , हंस और शूकर रुप धारण कर , आपके सम्पूर्ण शरीर के ओर छोर तक नहीं पहुँच सके । ॥८६॥
हे शंभॊ ! विष आपका भॊजन है , सर्प आपके आभूषण हैं , गजचर्म अथवा व्याघ्रचर्म आपके वस्त्र हैं , और बड़ा -सा बैल आपकी सवारी है । आप मुझे क्या देगें ? आपके पास देने को क्या है ? आप तो मुझे केवल चरणकमलों की भक्ति प्रदान करने की कृपा करें । ॥८७॥
हे भगवान शिव ! मैं आपकी पूजा करने , प्रार्थना करने और ध्यान करने के लिये तभी सक्षम हो सकता हूँ जब मैं भगवान् राम की भाँति समुद्र पर सेतु बना सकूँ , अथवा अगस्त्य मुनि की भाँति अपनी हथेली से विन्ध्याचल पर्वत उठा सकूँ , अथवा श्रीकृष्ण के समान ब्रह्या से भी बड़ा बन जाऊँ । ॥८८॥
इस पद्य को समझने के लिये कई शिव लीलाओं का स्मरण करना होगा । अर्जुन जब दिव्यास्त्रों के लिये तपस्या कर रहा था तो भगवान् शिव किरात के रुप में प्रकट हुए और एक जंगली सूअर पर विवाद के बाद दोनों में बाणॊं से युद्व हुआ । अर्जुन जब भगवान् शिव को नहीं हरा सका तो उसने पैर पकड़ लिये और शिव ने , प्रसन्न होकर , पाशुपत अस्त्र प्रदान किया ।
दक्षिण भारत की एक पुण्यकथा के अनुसार शीलवती को धान कूट कर शिवभक्तों को भॊजन कराने का काम सोंपा गया । वह शिव भक्तों को भॊजन कराने के बाद वचे -खुचे धान से अपना पेट भरती थी । एक बार भगवान् शिव वेष बदलकर उसके यहाँ आये किन्तु उन्होंने शीलवती का भोजन स्वीकार नहीं किया । क्रुद्व शीलवती मूसल होकर दौंड़ी । भगवान् शिव उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए।
शाक्य नायनार फूलों से भगवान् शिव की पूजा नहीं कर सकता था , क्योंकी वह विधर्मियों के बीच में रहता था । वह प्रतिदिन भगवान् की पूजा कंकड़ी फेंक कर करता था , और उसने अपना ह्रदय भगवान् को अर्पण कर दिया । भगवान् प्रसन्न हुए ।
हे स्वामी ! आप बन्दन से , स्तुति से , विधि -विधान युक्त पूजा से , ध्यान -समाधि से सन्तुष्ट नहीं होते । क्या बाण चलाकर , मूसल उठाकर , कंकड़ फेंक कर आपकी पूजा करुँ ? बताइये , आपको जो अच्छा लगे मैं वही करुँ । ॥८९॥
हे शम्भो ! मैं आपके ध्यान में दत्तचित्त नहीं रह पाता हूँ । इसलिये वाणी से आपकी लीलाओं का गान करता हूँ , मन से आपके रुप का स्मरण करता हूँ , और शिर से सदाशिव को प्रणाम करता हूँ । ॥९०॥