शिवानन्दलहरी - श्लोक ६६ ते ७०

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


६६

क्रीडार्थ सृजति प्रपंचमखिलं क्रीडामृगास्ते जनाः

यत्कर्माचरित मया च भवतः प्रीत्यै भवत्येव तत् ।

शंभो ! स्वस्य कुतूहलस्य करणं मच्चेष्टितं निश्चितं

तस्मान्मामकरक्षणं पशुपते कर्तव्यमेव त्वया ॥६६॥

 

६७

बहुविधपरितोषवाष्पपूर -

स्फुटपुलकाड्कि .तचारुभोगभूमिम् ।

चिरपदफलकाड्‍ .क्षिसेव्यमानां

परमसदाशिवभावनां प्रपद्ये ॥६७॥

 

६८

अमितमुदमृतं मुहुर्दुहन्तीं

विमलभवत्पदगोष्ठमावसन्तीम् ।

सदय पशुपते सुपुण्यपाकां

मम परिपालय भक्तिधेनुमेकाम् ॥६८॥

 

६९

जडता पशुता कलड्कि .ता

कुटिलचरत्वं च नास्ति मयि देव ।

अस्ति यदि राजमौले

भवदामरणस्य नास्मि किं पात्रम् ॥६९॥

 

७०

अहरसि रहसि स्वतंत्रबुद्वया

वरिवसितुं सुलभः प्रसन्नमूर्तिः

अगणितफलदाय्कःप्रभुर्मे

जगदधिको ह्रदि राजशेखरोऽस्ति ॥७०॥

हे शंभो ! आप जगत् की सृष्टी केवल क्रीड़ा के लिये करते हैं । सब लोग आपके क्रीडामृग हैं । मैं , क्रीड़ामृग , जो कुछ करता हूँ , वह सब आपकी प्रीति , कुतूहल के लिये हैं । इसलिय हे पशुपति ! आपको मेरी रक्षा करनी चाहिये । यत् यत् कर्म करोमि तत् तत् अखिलं शंभो तवाराधनम् ॥६६॥

मैं भगवान शिव के ध्यान में संलग्न होता हूँ । इस ध्यान का आश्रय वे लोग लेते हैं जो चिरकाल तक मुक्ति के आकांक्षी हैं , और भक्तिभाव में निकले अश्रुओं और अंगों में पुलकावलि का आनन्दमय अनुभव करने वाले हैं । ॥६७॥

हे कृपानिधान पशुपति ! मेरी भक्तिरुपी इस कामधेनु की रक्षा कीजिये । यह भरपूर आनन्द -अमृत रुपी दूध बार -बार देती हैं । आपके दिव्य चरणकमल रुपी गोष्ठ में रहता हैं , और मेरे पुण्यों के फलस्वरुप प्राप्त हुई है । ॥६८॥

( इस पद में शिवभक्त भगवान् शिव से मनुहार कर रहा है । वह समझता है कि जडता , पशुता , कलड्कि . ता , कुटिल आचरण जैसे बुराइयाँ उसमें नहीं हैं । अगर हों भी तव भी भगवान् शिव उसे आभूषण रुप स्वीकार कर सकते हैं । उनके आभूषण तो गजचर्म ( जड ), हरिण और बैल ( पशु ), कलड्री . ( चन्द्रमा ), कुटिल ( सर्प ) हैं । अगर इन्हें स्वीकार किया जा सकता है , तो उसे क्यों नहीं )

हे देव ! मुझमें जडता , पशुता , कुटिलता , कलड्क . जैसे बुराइयों , मैं समझता हूँ , नहीं हैं । अगर हों तब भी मुझे आप अड्रीकार कीजिये । गजचर्म , हरिण , चन्द्रमा और सर्पों को भी आपने अड्रीकार किया हुआ है । मुझे क्यों नहीं ॥६९॥

मेरे स्वामी राजराजेश्वर चन्द्रमौलि शिव हैं । उनकी पूजा -सेवा बाहर , भीतर , सबके सामने अथवा एकान्त में , कहीं भी , कैसे भी , की जा सकती है । वे सदा अनुकूल , सदा सुलभ और प्रसन्न रहते हैं । वे अनन्त फलदायक हैं , उनका अतुलित कृपा -प्रसाद है । वे समस्त जगत से बड़े हैं , और मेरे ह्रदय में भी निवास करते हैं । ॥७०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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