हे शंभो ! आप जगत् की सृष्टी केवल क्रीड़ा के लिये करते हैं । सब लोग आपके क्रीडामृग हैं । मैं , क्रीड़ामृग , जो कुछ करता हूँ , वह सब आपकी प्रीति , कुतूहल के लिये हैं । इसलिय हे पशुपति ! आपको मेरी रक्षा करनी चाहिये । यत् यत् कर्म करोमि तत् तत् अखिलं शंभो तवाराधनम् ॥६६॥
मैं भगवान शिव के ध्यान में संलग्न होता हूँ । इस ध्यान का आश्रय वे लोग लेते हैं जो चिरकाल तक मुक्ति के आकांक्षी हैं , और भक्तिभाव में निकले अश्रुओं और अंगों में पुलकावलि का आनन्दमय अनुभव करने वाले हैं । ॥६७॥
हे कृपानिधान पशुपति ! मेरी भक्तिरुपी इस कामधेनु की रक्षा कीजिये । यह भरपूर आनन्द -अमृत रुपी दूध बार -बार देती हैं । आपके दिव्य चरणकमल रुपी गोष्ठ में रहता हैं , और मेरे पुण्यों के फलस्वरुप प्राप्त हुई है । ॥६८॥
( इस पद में शिवभक्त भगवान् शिव से मनुहार कर रहा है । वह समझता है कि जडता , पशुता , कलड्कि . ता , कुटिल आचरण जैसे बुराइयाँ उसमें नहीं हैं । अगर हों भी तव भी भगवान् शिव उसे आभूषण रुप स्वीकार कर सकते हैं । उनके आभूषण तो गजचर्म ( जड ), हरिण और बैल ( पशु ), कलड्री . ( चन्द्रमा ), कुटिल ( सर्प ) हैं । अगर इन्हें स्वीकार किया जा सकता है , तो उसे क्यों नहीं )
हे देव ! मुझमें जडता , पशुता , कुटिलता , कलड्क . जैसे बुराइयों , मैं समझता हूँ , नहीं हैं । अगर हों तब भी मुझे आप अड्रीकार कीजिये । गजचर्म , हरिण , चन्द्रमा और सर्पों को भी आपने अड्रीकार किया हुआ है । मुझे क्यों नहीं ॥६९॥
मेरे स्वामी राजराजेश्वर चन्द्रमौलि शिव हैं । उनकी पूजा -सेवा बाहर , भीतर , सबके सामने अथवा एकान्त में , कहीं भी , कैसे भी , की जा सकती है । वे सदा अनुकूल , सदा सुलभ और प्रसन्न रहते हैं । वे अनन्त फलदायक हैं , उनका अतुलित कृपा -प्रसाद है । वे समस्त जगत से बड़े हैं , और मेरे ह्रदय में भी निवास करते हैं । ॥७०॥