हे मृत्युज्जय ! पापों के उत्पात का निवारण करने के लिए और रुचिर ऐश्वर्य के लिये मेरी इन्द्रियों द्वारा आपकी भक्ति की मुझसे प्रार्थना की जा रही है । मेरी जिह्रा स्तुति के लिये , चित्त ध्यान के लिये , शिर वन्दना के लिये , पैर प्रदक्षिणा के लिये , हाथ सेवा -पूजा के लि ये , नेत्र दर्शन के लिये , कान सुनने के लिये आपके आदेश की प्रार्थना कर रहे हैं । आप विस्तारसे मेरे लिये आपकी भक्ति के विधान समझाइये । बार -बार समझाइये । मेरे लिये मौन व्याख्यान अपर्याप्त है , मैं उसे नहीं समझ पाऊँगा । ॥४१॥
हे दुर्गा भवानी के अत्यंत प्रिय प्रभो ! (हे दुर्गप्रिय स्वामी !) आप मेने मन रुपी दुर्ग में सदा विराजमान रहिये । इस दुर्ग के चारों ओर गम्भीरता रुपी खाई है । अडिग धैर्य का परकोटा है । उत्तम गुणों के समूह की राजकीय सेना हैं । शरीर की इन्द्रियों के समूहों के दृढ़ द्वार हैं । विद्यारुपी धन -सम्पदा है । ॥४२॥
हे स्वामी कैलासपति आदिकिरात ! आप मृगया के लिये इधर -उधर मत जाइये । मेरे मन में ही वास कीजिये । मेरे इस मन में बड़ा घना जंगल है , जिसमें मोह , मत्सर आदि न जाने कितने मदमस्त जानवर रहते हैं । इन खूँख्वार जानवरों का शिकार कर मनोरंजन कीजिये और लाभ पाइये । ॥४३॥
मेरे चित्त की गुफा में पच्चमुखी शिव निवास करते हैं । मुझे किससे डर है ? वे कैलासपति बड़ी आकृतिवाले हैं । उन्होंने एक हाथ में दौड़ता हुआ मृग पकड़ रखा है , और गज चर्म धारण किये हुए हैं । उन्होंने भयंकर शार्दूल दैत्य को परास्त किया है । जिन्होंने पशु -चर्म धारण किया हुआ है , और जो पर्वतेश्वर हैं । ॥४४॥
हे मन पंछी , हे मनरुपी पक्षिराज ! इधर -उधर भटकना छोड़ । अब बहुत हो चुका । सदा भगवान् शंकर के चरणकमल युगल का आश्रय ले -वहाँ अपना घोंसला बना । इन चरणकमलों की वेदान्तवेत्ता पण्डित सदा सेवा करते हैं । इनसे परमसुख की प्राप्ति होती हैं , और दु ःखों का निवारण होता है । ये अमृत फलों से सुशोभित हैं । ॥४५॥