११.
गोद लिएं जसुधा नँद नंदै।
पीत झगुलिया की छबि छाजति,
बिज्जुलता सोहति मनु कंदै ॥१॥
बाजीपति अग्रज अंबा तेहि,
अरक थान सुत माल गुंदै।
मानौ स्वर्गहि तैं सुरपति रिपु
कन्या सौति आइ ढरि सिंधै ॥२॥
आरि करत कर चपल चलावत,
नंद नारि आनान छवै मंदै।
मनौ भुजंग अमी रस लालच,
फिरी फिरी चाटत सुभग सुचंदै ॥३॥
गूँगी बातनि यौं अनुरागत,
भँवर गुंजरत कमलन बंदै।
सूरदास स्वामी धनि तप किए,
बडे भाग जसुधा औ नंदै ॥४॥
१२.
राग धनाश्री
कहाँ लौ बरनौ सुंदरताई ?
खेलत कुँवर कनक आँगन मै नैन निरखि छबि पाइ॥१॥
कुलहि लसत सिर स्यामसुँदर कैं, बहु विधि सुरँग बनाई।
मानौ नव घन ऊपर राजत मघवा धनुष चढाई ॥२॥
अति सुदेस मृदु हरत चिकुर मन, मोहन मुख बगराई।
मानौ प्रघट कंज मंजुल पै अलि अवली धिरि आई॥३॥
नील, सेत औ पीत, लाल मनि लटकन भाल रुराई।
सनि गुरु असुर देवगुरु मिलि मनु भौम सहित समुदाई॥४॥
दूध दंत दुति कहि न जाति कछु, अद्भुत उपमा पाई।
किलकत, हँसत, दुरति, प्रगटति मनु घन मैं बिज्जु छटाई॥५॥
खंडित बचन देत पूरन सुख, अलप अलप जल झाँई।
घुटुवन चलत, रेनु तन मंडित सूरदास बलि जाई॥६॥
१३.
राग नटनारायन
हरि जू की बाल छबि कहौ बरनि।
सकल सुख की सींव, कोटि मनोज सोभा हरनि ॥१॥
भुज भुजंग, सरोज नैननि, बदन बिधु जित लरनि।
रहे बिबरनि, सलिल, नभ, उपमा अपर दुरिं डरनि ॥२॥
मंजु मेचक मृदुल तनु, अनुहरत भूषन भरनि।
मनौ सुभग सिंगार सिसु तरु फर्यौ अद्भुत फरनि ॥३॥
चलत पद प्रतिबिंब मनि आँगन घुटुरुवनि करानि।
जलज संपुट सुभग छबि भरि लेति उर जनु धरनि ॥४॥
पुन्य फल अनुभवति सुतै बिलोकि कैं नँद घरनि।
’ सूर ’ प्रभु की उर बसी किलकनि, ललित लरखरनि ॥५॥
१४.
राग सूहा बिलावल
मनियन आँगन नंद कैं खेलत दोउ भैया।
गौर स्याम जोरी बनी बलराम कन्हैया ॥१॥
लटकति ललित लटूरियाँ, मसि बिंदु गोरोचन।
हरि नख उर अति राजहीं संतनि दुख मोचन ॥२॥
सँग सँग जसुमति रोहिनी हितकारिनि मैया।
चुटकी दै जु नचावही सुत जानि नन्हैया ॥३॥
नील पीत पट ओढनी देखत जिय भावै।
बाल बिनोद आनंद सौं ’ सूरज ’ मन गावै ॥४॥
१५.
राग धनाश्री
आँगन खेलै नंद के नंदा।
जदुकुल कुमुद सुखद बर चंदा ॥१॥
संग संग बल मोहन सोहैं।
सिसु भूषन भुव कौ मन मोहैं ॥२॥
तन दुति मोर चंद जिमि झलकै।
उमँगि उमँगि अँग अँग छबि छलकै ॥३॥
कटि किंकिनि, पग पैंजनि बाजै।
पंकज पानि पहुँचिया राजै ॥४॥
कठुला कंठ बघनहा नीके।
नैन सरोज मैंन सरसी के ॥५॥
लटकति ललित ललाट लटूरी।
दमकति दूध दतुरियाँ रुरी ॥६॥
मुनि मन हरन मंजु मसि बिंदा।
ललित बदन बल बालगुबिंदा ॥७॥
कुलही चित्र बिचित्र झँगूली।
निरखि जसोदा रोहिनि फूली ॥८॥
गहि मनि खंभ डिंभ डग डोलै।
कलबल बचन तोतरे बोलै ॥९॥
निरखत झुकी झाँकत प्रतिबिंबहि।
देत परम सुख पितु अरु अंबहि ॥१०॥
ब्रज जन निरखत हियँ हुलसाने।
’ सूर ’ स्याम महिमा को जाने ॥११॥
श्रीयशोदाजी नन्दनन्दको गोदमें लिये है। ( श्यामसुन्दरके शरीरपर ) पीला
झगला ( बिना बाँहका कुर्ता ) ऐसी शोभा पा रहा है, मानो मेघपर बिजली सुभोभित
हो। काले रेशममे पिरोई हुई मोतियोकी माला धारण की हुई है, ( जो ऐसी लगती
है ) मानो स्वर्णसे आकर गंगाजी समुद्रमे मिल रही हैं। मचलते हुए चञ्चल हाथ
चला-चलाकर श्रीनन्दरानीके मुखको धीरेसे ( जाकर ) छू लेते है; ( उस समय ऐसा
जान पडता है ) मानो अमृतरसके लोभसे सर्प सुन्दर श्रेष्ठ चन्द्रमाको बार-बार
चाटता हो। गूँगे जैसे ( अर्थरहित अस्पष्ट ) शब्दोसे ऐसा अनुराग उत्पन्न कर
रहे है ( ऐसे प्रिय लगते हैं ) मानो कमलमे बंद हुए भ्रमर गुँजार कर रहे
हो। सूरदासके ये स्वामी धन्य है, जिन्हे श्रीयशोदाजी और व्रजराज नन्दजीने
बहुत तप करनेके बाद महान भाग्यसे ( पुत्ररुपमे ) पाया ॥११॥
(
श्यामकी ) सुन्दरताका कहाँतक वर्णन करुँ? ( श्रीनन्दबाबाके ) स्वर्णमय
आँगनमे खेलते हुए कुँवर ( कन्हैया ) की शोभाको मै ( अपने ) नेत्रोसे देख
पायी हूँ। अनेक प्रकारके उत्तम रंगोसे बनी कुलह-( एक प्रकारकी टोपी )
श्यामसुन्दरके मस्तकपर ( ऐसी ) शोभा दे रही है, मानो नवीन मेघके ऊपर इन्द्र
धनुष तानकर सुशोभित हो। मोहनके मुखके चारो ओर बिखरी हुई अत्यन्त सुन्दर और
कोमल अलके ऐसी मनोहर लगती है, मानो खिले हुए सुन्दर कमलपर भौर्रोंका झुंड
घिर आया हो। ललाटपर नीली ( नीलम ), श्वेत ( हीरा ), पीली ( पुखराज ), और
लाल ( पद्मराग ) मणिसे बना लटकन ऐसा भला लग रहा है मानो शनि, शुक्र और
बृहस्पति समुदाय बनाकर मंगलके साथ आ मिले हो । ( उनके ) दूधके दाँतोकी
ज्योतिका वर्णन तो हो नही सकता, उसने अद्भुत उपमा पा ली है। किलकारी लेकर
हँसते समय वह ज्योति इस प्रकार छिपती और प्रकट होती है, मानो बादलोमे
विद्युतकी छटा हो। तनिक-तनिक बोलते हुए ( उनके मुखसे ) जो खण्डित वाणी (
बिना वाक्यके कुछ शब्द ) निकलती है, वह पूर्ण सुख देती है। घुटनो चल रहे
है, शरीर धुलसे सुशोभित है, ( इस शोभापर ) सूरदास बलिहारी जाता है ॥१२॥
श्रीहरिकी
बालोचित शोभाको वर्णन करके कहता हूँ, जो सम्पूर्ण सुखोंकी सीमा तथा करोडो
कामदेवोकी शोभाको भी हरण करनेवाली है। उनकी ( श्याम ) भुजाओने नागोंको,
नेत्रोंने कमलोंको और मुखने चन्द्रमाको स्पर्धामे जीत लिया है,( जिससे ) वे
( सर्प ) बिलोमे, ( कमल ) पानीमें तथा ( चन्द्रमा ) आकाशमे चले गये तथा
अन्य उपमाएँ भी भयसे छिप गयी है। सुहावना, श्यामवर्ण कोमल शरीर है और उसीके
अनुकूल आभूषणवस्त्र ( ऐसे ) सजे है, मानो सुन्दर श्रृंगार-रसका बालतरु (
नवीन वृक्ष ) अद्भुत फलोंसे फलवान हो रहा है। घुटनो तथा हाथोके सहारे मणिमय
आँगनमे चलते समय चरणोंका प्रतिबिंब ऐसा पड रहा है, मानो पृथ्वी कमलोके
सम्पुट ( डिब्बो ) मे रखकर मनोहर शोभाको अपने हृदयमे भर रही हो।
श्रीनन्दरानी अपने पुत्रको देखकर ’ अपने पुण्योंका ( यह ) फल है ’ ऐसा
अनुभव कर रही है । सूरदासके हृदयमे अपने स्वामीकी किलकनेकी तथा मनोहर
लडखडाकर गिरनेकी मनोहर छटा बस गयी है ॥१३॥
श्रीनन्दजीके मणिमय
आँगनमे दोनो भाई खेल रहे है। गौरवर्ण बलराम तथा श्यामवर्ण कन्हैयाकी यह
जोडी अच्छी सजी है। ( दोनो भाइयोंके ललाटपर ) मनोहर अलकें लटक रही है।
काजलकी बेंदी ( डिठौनेके रुपमे ) तथा गोरोचनके तिलक है। वक्षपर वघनखे
अत्यन्त शोभा पा रहे हैं, जो सत्पुरुषोंका दुःख दूर करनेवाले है। यशोदाजी
और रोहिणीजी दोनो हितकारिणी माताएँ साथ-साथ है और पुत्रोको शिशु समझकर
चुटकी बजाबजाकर नचा रही है। ( बलरामजीके ) नीले और( श्रीकृष्णके ) पीले
वस्त्रकी ओढनी है, जो देखनेपर हृदयको प्रिय लगती है। सेवक सूरदास
आनन्दपूर्वक ( दोनो भाइयोंकी ) बालक्रीडाका गान करता है ॥१४॥
श्रीनन्दनन्दन
आँगनमे खेल रहे है । यदुकुलरुपी कुमुदिनीको सुख देनेवाले ये श्रेष्ठ
चंद्रमा हैं । बलराम और श्याम साथ-साथ शोभित हो रहे हैं, उनके बालकोचित
आभूषण पृथ्वीभर ( सारे संसार ) के मनको मोहित कर रहे हैं । ( श्यामसुन्दरके
) शरीरकी शोभा मयूरकी-सी और ( बलरामकी ) चन्द्रमाके समान झलमला रही है,
दोनोंके अंग-अंगसे सुन्दरता उमड-उमडकर छलकती है । कमरके किंकिणी और चरणोंमे
नूपुर बज रहे है, कमल-करोमे पहुँची शोभित है । गलेमे कठुला और सुन्दर
बघनखा है; नेत्र ऐसे है मानो कामदेवकी बावलीके कमल हो । ललाटपर मनोहर
घुँघराली लटुरियाँ ( छोटी-छोटी लटे ) लटक रही है । सुन्दर दूधकी दँतुलियाँ (
छोटे-छोटे दाँत ) चमक रही है । मुनियोंका भी मन हरण करनेवाली मनोहर काजलकी
बेंदी ( भालपर ) है, बलराम और छोटे-से श्यामके मुख अत्यन्त सुन्दर है ।
अनेक रंगोकी कुलह ( एक प्रकारकी टोपी ) तथा झगुली ( ढीला अँगरखा ) पहिने
है, माता यशोदा और रोहिणीजी देख-देखकर प्रफुल्लित हो रही है । मणि -
खम्भेको पकडकर छोटे बच्चेकी भाँति डगमगाते हुए चल रहे है, तोतली वाणीमें
अस्पष्ट वचन बोलते है । झुककर देखते तथा अपने प्रतिबिम्बको निहारते हुए
माता-पिताको आनन्द दे रहे है । व्रजके लोगोंके हृदय ( दोनो भाइयोंको )
देख-देखकर उल्लसित हो रहे है । सूरदासजी कहते हैं- श्यामसुन्दरका माहात्म्य
भला, कौन जान सकता है ॥१५॥