२१.
राग ललित
छोटी-छोटी गुडीयाँ, अँगुरियाँ छबीली छोटी,
नख जोती मोती मानौ कमल दलनि पर।
ललित आँगन खेलै, ठुमुक ठुमुक डोलै,
झुनुक झुनुक बोलै पैंजनी मृदु मुखर ॥१॥
किँकिनी कलित कटि हाटक रतन जटि,
मृदु कर कमलन पहुँची रुचिर बर।
पियरी पिछौरी झीनी, और उपमा न भीनी,
बालक दामिनी मानौ ओढै बारौ बारिधर ॥२॥
उर बघनहा, कंठ कठुला, झँडुले बार,
बेनी लटकन मसि बुंदा मुनि मन हर।
अंजन रंजित नैन, चितवनि चित चोरै,
मुख सोभा पर बारौं अमित असमसर ॥३॥
चुटुकी बजावति नचावति जसोधा रानी,
बाल केलि गावति मल्हावति सुप्रेम भर।
किलकि किलकि हँसे, द्वै द्वै दँतुरियाँ लसै,
सूरदास मन बसै तोतरे बचन बर ॥४॥
२२.
राग बिलावल
( माधौ ) तनक चरन औ तनक तनक भुज,
तनक बदन बोलै तनक सौ बोल।
तनक कपोल, तनक सी दँतियाँ,
तनक हँसनि पै लेत हैं मोल ॥१॥
तनक करन पर तनक माखन लिए,
तनक सुनै सुजस पावत परम गति,
तनक कहत तासौं नँद के सुवन ॥२॥
तनक रीझ पै देत सकल तन,
तनक चितै चित बित के हरन।
तनकै तनक, तनक करि आवै ’ सूर ’,
तनक कृपा कै दीजै तनक सरन ॥३॥
२३.
मेरी माई, स्याम मनोहर जीवन। निरखी नैन भूले जु बदन छबि, मधुर हँसन पै पीवन ॥१॥
कुंतल कुटिल, मकर कुंडल, भ्रुव, नैन बिलोकनि बंक। सुधा सिंधु तैं निकसि नयौ ससि राजत मनु मृग अंक ॥२॥
सोभित सुवन मयूर चंद्रिका नील नलिन तनु स्याम।
मनौ नछत्र समेत इंद्र धनु, सुभग मेघ अभिराम ॥३॥
परम कुसल कोबिद लीला नट मुसुकनि मन हरि लेत।
कृपा कटाच्छ कमल कर फेरत, ’ सूर ’ जननि सुख देत ॥४॥
२४.
राग सारंग
हरि हर संकर, नमो नमो।
अहिसाई, अहि अंग बिभूषन, अमित दान, बल बिष हारी। नीलकंठ, बर नील कलेवर, प्रेम परस्पर कृतहारी ॥१॥ चंद्रचूड, सिखि चंद सिरोरुह, जमुनाप्रिय, गंगाधारी। सुरभि रेनुतन, भस्म विभूषित, वृष बाहन, बन व्रुष-चारी ॥२॥
अज अनीह अनिरुद्ध एकरस, यहै अधिक ए अवतारी। सूरदास सम रुप नाम गुन, अंतर अनुचर अनुसारी ॥३॥
बाल-छबि-वर्णन
२५.
राग बिलावल
बरनौ बालवेष मुरारी।
थकित जित तित बपन के, चहुँ दिसा छिटके झारि।
सीस पर धरि जटा, मनु सिसु रुप कियौ त्रिपुरारी ॥२॥
तिलक ललित ललाट केसर बिंदु सोभाकारि।
रोष अरुन तृतीय लोचन रह्यौ जनु रिपु जारि ॥३॥
कंठ कठुला नील मनि, अंभोज माल सँवारि।
गरल ग्रीव, कपाल उर, इहिं भाइ भए मदनारि ॥४॥
कुटिल हरिनख हिए हरि के हरषि निरखित नारि।
ईस जनु रजनीस राख्यौ भाल तैं जु उतारि ॥५॥
सदन रज तन साम्य सोभित सुभग इहिं अनुहारि।
मनौ अंग बिभूति राजित संभु सो मधुहारि ॥६॥
त्रिदस पति पति असन कौं अति जननि सौं करै आरि।
सूरदास बिरंचि जाकौं जपत निज मुख चारि ॥७॥