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श्रीकृष्ण माधुरी - पद ९१ से ९५

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


९१.
राग बिहागरौ
जैसे कहे, स्याम है तैसे।   
कृष्न रुप अवलोकन कौं सखि, नैन होहिं जौ ऐसे ॥१॥
तैं जु कहति लोचन भरि आए, स्याम कियौ तहँ ठौर।
पुन्न थली तिहि जानि बिराजे, बात नही कछु और ॥२॥
तेरे नैन बास हरि कीन्हौ, राधा, आधा जानि।
सूर स्याम नटवर बपु काछे, निकसे इहिं मग आनि ॥३॥

९२.
राग कल्यान
जब तै निरखे चारु कपोल।
तब तैं लोक लाज सुधि बिसरी, दैं राखे मन ओल ॥१॥
निकसे आइ अचानक तिरछे, पहरे पीत निचोल ।
रतन जटित सिर मुकुट बिराजत, मनिमै कुंडल लोल ॥२॥
कहा करौं, बारिज मुख ऊपर बिथके पटपद जोल।
सूर स्याम करि यह उतकरषा, बस कीन्ही बिनु मोल ॥३॥

९३.
राग पूरबी
चारु चितौजिन, सु चंचल डोल।
कहि न जाति मन मैं अति भावति,
कछु जु एक उपजति गति गोल ॥१॥
मुरली मधुर बजावत, गावत,
चलत करज अरु कुंडल लोल।
सब छबि मिलि प्रतिबिंब बिराजत,
इंद्रनील मनि मुकुर कपोल ॥२॥
कुंचित केस सुगंध सुबसि मनु
उडि आए मधुपनि के टोल।
सूर सुभ्रुव, नासिका मनोहर,
अनुमानत अनुराग अमोल ॥३॥

९४.
राग बिभास
गोकुल गाउँ रसीले पिय कौ।
मोहन देखि मिटत दुख जिय कौ ॥१॥
मोरमुकुट, कुंडल, बनमाला।
या छबि सौं ठाढे नँदलाला ॥२॥
कर मुरली, पीतांबर सौहे।
चितवत ही सब कौ मन मोहै ॥३॥
मन मोहियौ इन साँवरे हो, चकित सी डोलत फिरौ।
और कछु न सुहाइ तन मन, बैठि उठि गिरि गिरि परौं ॥४॥
मदन बान सुमार लागे, जाइ परि न कछू कही।
और कछू उपाइ नाही, स्याम बैद बुलावही ॥५॥
मैं तो तजी लाज गुरुजन की।
अब मोहि सुधि न परै या तन की ॥६॥
लोग कहै यह भइ है बौरी।
सुत पति छाँडि फिरति बन दौरी ॥७॥
छाँडि सुरति सम्हार जिय की, कृष्न छवि हिरदै बसी।
मदन मोहन देखि धाई, वैसिए कुंजनि धँसि ॥८॥
कुंज धाम किसोर ठाढे, केसरि खौरि बनाइ कैं।
चन्द्रिका पर वारौं, बलि गई या भाई कैं ॥९॥
इन नैनन बाँध्यौ प्रन भारी।
निरखत रहैं सदा गिरीधारी ॥१०॥
काहू कौ कह्यौ मन नहि आन्यौं।
कमलनैन नैननि पहिचान्यौ ॥११॥
निरखि नंद किसोर सखि री, कोटि किरन प्रकासु री।
कालिंदी के तीर ठाढे, श्रवन सुनियत बाँसुरी ॥१२॥
बाँसुरी बस किए सुर नर, सुनत पातक नासु री।
सूर के प्रभु यहै बिनती, सदा चरननि बासु री ॥१३॥

९५.
राग गौरी
नंद नँदन बृंदावन चंद।
जदुकुल नभ, तिथि दुतिय देवकी, प्रगटे त्रिभुवन बंद ॥१॥
जठर कुहू तैं बिहरि बारुनी, दिसि मधुपुरी सुछंद।
बसुद्यौ संभु सीस धरि आन्यौ गोकुल, आनँद कंद ॥२॥
ब्रज प्राची, राका तिथि जसुमति, सरस सरद रितु नंद।
उडगन सकल सखा संकरषन, तम कुल दनुज निकंद ॥३॥
गोपी जन चकोर चित बाँध्यौ, निमि निवारि पल द्वंद।
सूर सुदेस कला षोडस परिपूरन परमानंद ॥४॥


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Last Updated : November 19, 2010

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