१६१.
राग सारंग
सखी री ! मुरली लीजै चोरि।
जिन गुपाल कीन्हे अपने बस, प्रीति सबन की तोरि ॥१॥
छिन इक घर भीतर, निसि बासर, धरत न कबहूँ छोरि।
कबहूँ कर, कबहूँ अधरनि कटि कबहूँ खौंसत जोरि ॥२॥
ना जानाँ कछु मेलि मोहिनी, राखे अँग अँग भोरि।
सूरदास प्रभु कौ मन सजनी, बँध्यौ राग की डोरि ॥३॥
१६२.
राग केदारौ
मुरली अधर सजी बालबीर।
नाद सुनि बनिता बिमोही, बिसरे उर के चीर ॥१॥
धेनु, मृग तृन तजि रहे, बछरा न पीबत छीर।
नैन मूदे खग रहे, ज्यौं करत तप मुनि धीर ॥२॥
डुलत नहिं द्रुम पत्र बेली, थकित मंद समीर।
सूर मुरली सब्द सुनि, थकि रहत जमुना नीर ॥३॥
१६३.
राग मलार
जब हरि मुरली अधर धरी।
गृह ब्यौहार तजे आरज पथ, चलत न संक करी ॥१॥
पद रिपु पट अटक्यौ न सम्हारति, उलट न पलट खरी।
सिव सुत बाहन आइ मिले है, मन चित बुद्धि हरी ॥२॥
दुरि गए कीर, कपोत, मधुप, पिक, सारँग सुधि बिसरी।
उडुपति बिद्रुम, बिंब खिसाने, दामिनि अधिक डरी ॥३॥
मिलिहै स्यामहि हंस सुता तट, आनँद उमग भरी।
सूर स्याम कौं मिली परसपर, प्रेम प्रबाह ढरी ॥४॥
१६४.
राग केदारौ
मुरली कौन सुकृत फल पाए।
अधर सुधा पीवति मोहन की, सबै कलंक गँवाए ॥१॥
मन कठोर, तन गाँठि प्रगट ही, छिद्र बिलास बनाएँ।
अंतर सून्य सदा देखियति है, निज कुल बंस सुभाएँ ॥२॥
सूरदास प्रभु पानि परसि नित, काम बेलि अधिकाएँ ॥३॥
१६५.
नँद नँदन सुधराई बाँसुरी बजाई।
सरगम सुनीके साधि, सप्त सुरनि गाई ॥१॥
अतीत अनागत सँगीत, तान बिच मिलाई।
सुर तालऽरु नृत्य ध्याइ, मृदँग पुनि बजाई ॥२॥
सकल कला गुन प्रबीन, नवल बाल भाई।
सूरज प्रभु अरस परस, रीझि, सब रिझाई ॥३॥