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श्रीकृष्ण माधुरी - पद १०६ से ११०

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


१०६.
राग कान्हरौ
स्याम कमल पद नख की सोभा।
जे नख चंद इंद्र सिर परसे, सिव बिरंचि अन लोभा ॥१॥
जे नख चंद सनक मुनि ध्यावत नहिं पावत, भरमाही।
जे नख चंद प्रगट ब्रज जुबती निरखि निरखि हरषाही ॥२॥
जे नख चंद फनिंद हृदय तै एकौ निमिष न टारत।
जे नख चंद महामुनि नारद पलक न कहूँ बिसारत ॥३॥
जे नख चंद भजन खल नासत, रमा हृदय जे परसति।
सूर स्याम नख चंद बिमल छबि गोपी जन मिलि दरसति ॥४॥

१०७.
राग आसावरी
स्याम हृदय जलसुत की माला,
अतिहिं अनूपम छाजै ( री )।
मनौ बलाक पाँति नव घन पै,
यह उपमा कछु भ्राजै ( री ) ॥१॥
पीत, हरित, सित, अरुन माल बन
राजति हृदय बिसाल ( री )।
मानौ इंद्र धनुष नभ मंडल
प्रगट भयौ तिहिं काल ( री ) ॥२॥
भृगु पद चिह्न उरस्थल प्रगटे,
कौस्तुभ मनि ढंग दरसत ( री )।
बैठे मानौ षट बिधु इक सँग,
अर्द्ध निसा मिलि हरषत ( री ) ॥३॥
भुजा बिसाल स्याम सुंदर की,
चंदन खौरि चढाए ( री )।
सूर सुभग अँग अँग की सोभा
ब्रज ललना ललचाए ( री ) ॥४॥


१०८.
निरखि सखि ! सुंदरता की सींवा।
अधर अनूप मुरलिका राजति, लटकि रहति अध ग्रीवा ॥१॥
मंद मंद सुर पूरत मोहन, राग मलार बजावत।
कबहूँ रीझि मुरलि पै गिरिधर आपुहिं रस भरि गावत ॥२॥
हँसत लसत दसनावलि पंगति, ब्रज बनिता मन मोहत।
मरकत मनि पुट बिच मुकुताहल, बँदन भरे मनु सोहत ॥३॥
मुख बिकसत सोभा इक आवति, मनु राजीव प्रकास।
सूर अरुन आगमन देखि कैं प्रफुलित भए हुलास ॥४॥


१०९.
राग टोडी
गोपी जन हरि बदन निहारति।
कुंचित अलक बिथुरि रहिं भ्रुव पै, ता पै तन मन वारति ॥१॥
बदन सुधा सरसीरुह लोचन, भृकुटी दोउ रखवारी।
मनौ मधुप मधु पानै आवत देखि डरत जियँ भारी ॥२॥
इक इक अलक लटकि लोचन पै, यह उपमा इक आवति।
मनौ पन्नगिनि उतरि गगन तैं दल पर फन परसावति ॥३॥
मुरली अधर धरैं कल पूरत, मंद मंद सुर गावत।
सूर स्याम नागरि नारिनि के, चंचल चितै चुरावत ॥४॥


११०.
राग बिलावल
देखि सखी ! यह सुंदरताई।
चपल नैन बिच चारु नासिका,
इकटक दृष्टि रही तहँ लाई ॥१॥
करति बिचार परसपर जुबती,
उपमा आनति बुद्धि बनाई।
मानौ खंजन बिच सुक बैठ्यौ,
यह कहि कैं मन जाति लजाई ॥२॥
कछु इक तिल प्रसून की आभा,
मन मधुरकर तहँ रहयौ लुभाई।
सूर स्याम नासिका मनोहर,
यह सुंदरता उन कहँ पाई ॥३॥

( सखी कहती है- ) श्यामके ( उन ) चरण-कमलोंके नखोंकी कैसी ( अवर्णनीय ) शोभा है, जिन नखचन्द्रोंका इन्द्रने मस्तकसे स्पर्श किया तथा शंकर और ब्रह्माका मन भी जिनपर लुब्ध रहता है । जिन नखचन्द्रोंको सनकादि मुनि ध्यान करते हुए भी पाते नही- संदेहमे ही पडे रहते है ( कि ध्यानमे वे कभी आयेंगे भी या नही ), जिन नखचंद्रोको व्रजकी युवतियाँ प्रत्यक्ष देख-देखकर हर्षित होती है, जिन नखचंद्रोको शेषजी अपने हृदयसे एक पलके लिये भी नही हटाते, जिन नखचंद्रोंको महामुनि नारद ( हृदयसे ) एक क्षणके लिये भी नही भुलाते, जिन नखचंद्रोका भजन दुष्टो ( कामादि दोषो ) को नष्ट कर देता है और जो लक्ष्मीजीके हृदयका स्पर्श करते ( लक्ष्मी जिन्हे हृदयपर धारण करती ) है, सूरदासजी कहते है कि श्यामके उन्ही नखचन्द्रोकी निर्मल शोभा ( सब ) गोपियाँ एकत्र होकर देखती है ॥१०६॥


( गोपी कह रही है- ) सखी ! श्यामसुन्दरके वक्षःस्थलपर मोतियोंकी माला बडी ही अनुपम छटा दे रही है । मानो नवीन मेघपर बगुलोंकी पंक्ति हो, यही उपमा कुछ फबती है । पीले, हरे, श्वेत, लाल पुष्पोंकी वनमाला विशाल वक्षःस्थलपर ( ऐसी ) शोभित है, मानो इसी समय आकाशमण्डलमे इन्द्रधनुष प्रकट हुआ हो । वक्षःस्थलपर ( पाचो अँगुलियोंसे युक्त ) भृगुका चरण-चिन्ह और पास ही कौस्तुभमणि दीख रहे है, मानो छः चन्द्रमा मिलकर अर्धरात्रिमें एक साथ बैठे प्रसन्न हो रहे ( चकम रहे ) हों । श्यामसुन्दरकी विशाल ( लंबी ) भुजाओंपर चन्दनका लेप लगा है । सूरदासजी कहते है कि अपने अंग-प्रत्यंगकी शोभासे व्रजकी स्त्रियोंको ( उन्होंने ) ललचा दिया-मुग्ध कर लिया है ॥१०७॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! सुन्दरताकी सीमा देख ! अनुपम ओंठोंपर वंशी शोभा दे रही है, ( जिससे ) कण्ठ आधा झुका हुआ है । मन्द कोमल स्वर भरकन मोहन मलार राग बजाते और कभी वे गिरिधारी मुरलीपर रीझकर अपने-आप आनन्दसे उमंगमे आकर गाते है । हँसते समय दाँतोंकी पंक्तियाँ जो शोभा देती है, वह व्रजनारियोंके मनको मोह लेती है । ( उस समय आपके दाँतोकी शोभा ऐसी लगती है ) मानो नीलम ( मरकत ) मणिके डिब्बेमे सिन्दूर-भरे मोती शोभा दे रहे हो । मुखके खिलनेपर एक ऐसी शोभा बन आती है, जैसे वह खिला कमल हो । सूरदासजी कहते है- ( मुझे वह खिला कमल ऐसा ज्ञात हुआ कि ) अरुणोदयको आता देखकर उल्लाससे प्रफुल्लित हो उठा हो ॥१०८॥

गोपियाँ हरिका मुख देख रही है । घुँघराली अलके भौंहेपर बिखर रही है; उनकी उस शोभापर वे अपना तन-मन न्योछावर कर रही है । अमृतपूर्ण मुखके दोनों नेत्र-कमलोंकी दोनो भौंहे ( इस प्रकार ) रक्षा कर रही है, मानो भौंरे मधुपान करनेके लिये आते हुए उन्हे देखकर मनमे अत्यन्त डर रहे हो । नेत्रोंपर लटकी हुई एक-एक अलककी यह एक उपमा सूझती है, मानो आकाशसे उतरकर नागिने कमलदलका ( अपने ) फणसे स्पर्श कर रही हो । ओठपर वंशी रखे उसे सुन्दर ध्वनिसे पूर्ण कर रहे है और मन्द-मन्द स्वरमे गा रहे है । सूरदासजी कहते है कि ( इस प्रकार ) श्यामसुन्दर चतुर स्त्रियोंके चञ्चल चित्तको चुरा रहे है ॥१०९॥


( गोपी कह रही है- ) सखी ! यह सुन्दरता देख ! चञ्चल नेत्रोंके मध्यमे सुन्दर नाक है, एकटक ( अपलक ) नेत्र ( वहाँ ) लगे रह जाते है । ( उसे देखकर ) व्रजयुवतियाँ परस्पर विचार कर और बुद्धि लगाकर यह उपमा देती है कि ’ मानो दो खञ्जनोके बीचमे तोता बैठा हो ’ तथा यह कहकर मनमे लज्जित हो जाती है ( कि उपमा ठीक नही बनी ) । कुछ-कुछ तिलके पुष्पकी कान्तिवाली ( नासिका ) पर मनरुपी भौंरा लुब्ध होकर रह जाता है । सूरदासजी कहते है- किंतु श्यामसुन्दरकी नासिका इतनी मनोहर है कि उसकी सुन्दरताको तिल-प्रसून कहाँ पा सके अर्थात नही पा सके है ॥११०॥


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Last Updated : November 19, 2010

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