१५१.
राग गौरी
ब्रज ललना देखत गिरधर कौं।
इक इक अंग अंग पै रीझीं, उरझी मुरलीधर कौं ॥१॥
मानौ चित्र की सी लिखि काढी, सुधि नाही मन घर कौं।
लोक लाज, कुल कानि भुलानी, लुबधी स्यामसुँदर कौं ॥२॥
कोउ रिसाइ, कोउ कहै जाइ कछु, डरै न काहू डर कौं।
सूरदास प्रभु सौं मन मान्यौं, जनम-जनम परतर कौं ॥३॥
१५२.
राग सारंग
बंसी री ! बन कान्ह बजावत।
आनि सुनौ स्त्रवननि मधुरे सुर,
राग मध्य लैं नाम बुलावत ॥१॥
सुर स्त्रुति तान बधान अमित अति,
सप्त अतीत अनागत आवत।
जुरि जुग भुज सिर, सेष सैल, मथि
बदन पयोधि अमृत उपजावत ॥२॥
मनौ मोहिनी भेष धारि कैं
मन मोहन मधु पान करावत।
सुर, नर, मुनि बस किए राग रस,
अधर सुधा रस मदन जगावत ॥३॥
महा मनोहर नाद सूर थिर
चर मोहे, कोउ मरम न पावत।
मानौ मूक मिठाई के गुन
कहि न सकत मुख, सीस डुलावत ॥४॥
१५३.
राग बिलावल
बाँसुरी बजाई आछे रंग सौं मुरारी।
सुनि कैं धुनि छूटि गई संकर की तारी ॥१॥
बेद पढन भूलि गए ब्रह्मा ब्रह्मचारी।
रसना गुन कहि न सकै, ऐसि सुधि बिसारी ॥२॥
इंद्र सभा थकित भई, लगी जब करारी।
रंभा कौ मान मिट्यौ, भूली नृतकारी ॥३॥
जमुना जू थकित भईं, नही सुधि सँभारी।
सूरदास मुरली है तीन लोक प्यारी ॥४॥
१५४.
राग केदारौ
बंशी बनराज आई रन जीति।
मेटति है अपने बल, सबहिनि की रीति ॥१॥
बिडरे गज जूथ सील, सैन लाज भाजी।
घूँघट पट कोट टूटे, छूटे दृग ताजी ॥२॥
काहूँ पति गेह तजे, काहूँ तन प्रान।
काहूँ सुख सरन लयौ, सुनत सुजस गान ॥३॥
कोऊ पग परसि गए अपने-अपने देस।
कोऊ रस रंक भए, हुते जे नरेस ॥४॥
देत मदन मारुत मिलि दसौं दिसि दुहाई।
सूर श्रीगुपाल लाल बंसी बस माई ॥५॥
१५५.
राग सारंग
जब तैं बंसी स्त्रवन परी।
तबही त मन और भयौ सखि, मो तन सुधि बिसरी ॥१॥
हौं अपने अभिमान रुप, जोबन कें गरब भरी।
नेक न कह्यौ कियौ, सुनि सजनी, बादैं आइ ढरी ॥२॥
बिनु देखें अब स्याम मनोहर जुग भरि जात घरी।
सूरदास सुनि आरज पथ तैं कछू न चाड सरी ॥३॥