१८१.
राग बिलावत
मुरली भई आजु अनूप ।
अधर बिंब बजाइ कर धरि मोहे त्रिभुवन रुप ॥१॥
देखि गोपी ग्वाला गाइनि, देखि बन गृह जूप ।
देखि मुनि जन, नाग चंचल, देखि सुंदर रुप ॥२॥
देखि धरनि, अकास, सुर, नर, देखि सीतल धूप ।
देखि सूर अगाध महिमा भए दादुर कूप ॥३॥
१८२.
राग केदारौ
मुरली नाम गुन बिपरीति ।
खीन मुरली गहैं मुर अरि, रहत निसि दिन प्रीति ॥१॥
कहत बंसी छिद्र परगट हृदै, छूछे अंग ।
बिदित जग हरि अधर पीवत, करत मनसा पग ॥२॥
चलत ते सब अचल कीन्हे, अचल चलत नगेस ।
अमर आने मृत्युलोकै, चलत भुव पर सेष ॥३॥
नैनहू मन मगन ऐसे, काल गुननि बितीत ।
सूर त्रै सौं एक कीन्हे रीझि त्रिगुन अतीत ॥४॥
१८३.
राग पूरबी
स्याम मुख मुरली अनुपम राजत ।
सुभग सिखंड पीड सिर सोहत, स्त्रवननि कुंडल भ्राजत ॥१॥
नील जलद पै सुभग चाप सुर मंद-मंद रव बाजत ।
पीतांबर कटि तडित भाव जनु, मार बिबस मन लाजत ॥२॥
ठाढे तरु तमाल तर सुंदर नंद नँदन बनमाली ।
सूर निरखि ब्रजनारि चकित भइँ, लगी मदन की भाली ॥३॥
१८४.
राग गौरी
मोहन मुरली अधर धरी ।
कंचन मनि मय रचित, खचित अति, कर गिरिधरन परी ॥१॥
उघटत तान बँधान सप्त सुर, सुनि रस उमगि भरी ।
आकरषति तन मन जुबतिनि के, गति बिपरीत करी ॥२॥
पिय मुख सुधा बिलास बिलासिनि गीत समुद्र तरी ।
सूरदास त्रैलोक्य बिजै करि रति पति गरब हरी ॥३॥
१८५.
राग केदारौ
मुरली अधर बिंब रमी ।
लेति सरबस जुबति जन कौ, मदन बिदित अमी ॥१॥
पीय प्यारी, कृत्य कारे, करत नाहिं नमी ।
बोलि सब्द सुसप्त सुर, गति नाग सुनाद दमी ॥२॥
महा कठिन कठोर आली, बाँस बंस जमी ।
सूर पूरन परसि श्री मुख नेकु नाहिं झमी ॥३॥