हरिका समरन करले बंदा काहेको बेपार है धंदा ॥भु०॥
जबसे काया उतर खरी है या नगरीकी बसतीमाही ।
तबसे माया जबर भरी है या भितरकी जगतीमाही ॥१॥
झूठी काया और झूठी माया राजा रंक सबी लोभाना ।
वचन जो गुरुका सबने गुमाया दो दिन रहेना और जाना ॥२॥
भूला मन सो बीच जिंगा जिंगा होकर क्या बढाई ।
मरम ना जाने मन दुखादिये हुई नरकसे नैन लढाई ॥३॥
धन जोबनसे बदन छुपाये किया सब झूट तमासा ।
मगरूरीका युध क्या जमाये उस दरम्यान हुवा बासा ॥४॥
कहत कबीरा सुन भाई साधू अज्ञान क्यौं ग्यान धरे ।
मूरखसो हर भूल निसदिन पूजत फतर वामें मिले ॥५॥