सखी, हौं स्याम रंग रँगी ।
देखि बिकाइ गई वह मूरति, सूरति माहि पगी ॥१॥
संग हुतो अपनो सपनो सो, सोइ रही रस खोई ।
जागेहु आगे दृष्टि परै सखि, नेकु न न्यारो होई ॥२॥
एक जु मेरी अँखियनमें निसिद्योस रह्यो करि भौन ।
गाइ चरावन जात सुन्यो सखि, सो धौं कन्हैया कौन ॥३॥
कासों कहौं कौन पतियावै, कौन करै बकवाद ।
कैसे कै कहि जात गदाधर, गूँगेको गुड़ स्वाद ॥४॥