कबै हरि, कृपा करिहौ सुरति मेरी ।
और न कोऊ काटनको मोह बेरी ॥१॥
काम लोभ आदि ये निरदय अहेरी ।
मिलिकै मन मति मृगी चहूँधा घेरी ॥२॥
रोपी आइ पास-पासि दुरासा केरी ।
देत वाहीमें फिरि फिरि फेरी ॥३॥
परी कुपथ कंटक आपदा घनेरी ।
नैक ही न पावति भजि भजन सेरी ॥४॥
दंभके आरंभ ही सतसंगति डेरी ।
करै क्यों गदाधर बिनु करुना तेरी ॥५॥