कार्तिक कृष्णपक्ष व्रत - रुपचतुर्दशी

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


रुपचतुर्दशी

( बहुसम्मत ) -

कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिके अन्तमें - जिस दिन चन्द्रोदयके समय चतुर्दशी हो उस दिन प्रभात समयमें दन्तधावन आदि करके ' यमलोकदर्शनाभावकामोऽहमभ्यङ्गस्त्रानं करिष्ये ।'

यह संकल्प करे और शरीरमें तिलके तेल आदिका उबटन या मर्दन करके हलसे उखड़ी हुई मिट्टीका ढेला, तुम्बी और अपामार्ग ( ऊँगा ) - इनको मस्तकके ऊपर बार - बार घुमाकर शुद्ध स्त्रान करे । यद्यापि कार्तिकस्त्रान करनेवालोंके लिये

' तैलाभ्यङ्गं तथा शय्यां परान्नं’

तैलाभ्यङ्गः वर्जित किया है, किंतु

' नरकस्य चतुर्दश्यां तैलाभ्यङ्गं च कारयेत् ॥ अन्यत्र कार्तिकस्त्रायी तैलाभ्यङं विवर्जयेत् ॥'

के आदेशसे नरकचतुर्दशी या ( रुपचतुर्दशी ) को तैलाभ्यङ्ग करनेमें कोई दोष नहीं । यदि रुपचतुर्दशी दो दिनतक चन्द्रोदयव्यापिनी हो तो चतुर्दशीके चौथे प्रहरमें स्त्रान करना चाहिये । इस व्रतको चार दिनतक करे तो सुख - सौभाग्यकी वृद्धि होती है ।

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Last Updated : January 22, 2009

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