हे मेरे गुरुदेव करुणा सिन्धु करुणा कीजिये ।
हूँ अधम आधीन अशरण अब शरण में लीजिये ॥टेर॥
खा रहा गोते हूँ मैं भवसिन्धु की मझधार में ।
आसरा है दूसरा कोई न इस संसार में ॥१॥
मुझमें है जप तप न साधन और नहीं कुछ ज्ञान है ।
निर्लज्जता है एक बाकी और बस अभिमान है ॥२॥
पाप बोझ से लदी नैया भँवर में आ रही ।
नाथ दौड़ो अब बचाओ, जल्द डूबी जा रही ॥३॥
आप भी यदि छोड़ देंगे फिर कहाँ जाऊँगा मैं ।
जन्म दुख से नाव कैसे पार कर पाऊँगा मैं ॥४॥
सब जगह मंजिल भटक कर अब शरण ली आपकी ।
पार करना या न करना दोनों मरजी आपकी ॥५॥