कृष्ण मुरारी शरण तुम्हारी, पार करो नैया म्हारी ।
जन्म अनेक भये जग माहीं, कबहुँ न भगति करी थारी ॥१॥
लख चौरासी भरमत-भरमत, हार गई हिम्मत सारी ।
अब उध्दार करो भव-भंजन, दीननके तुम हितकारी ॥२॥
मैं मतिमन्द कछू नहिं जागत, पाप अनन्त किये भारी ।
जो मेरा अपराध गिनो तो, नाथ मिले पारावारी ॥३॥
तारे भगत अनेक आपने, शेष शारदा कथ हारी ।
बिना भक्ति तारो तो तारो, अबकी बेर आई म्हारी ॥४॥
खान -पान विषयादिक भोगन, लपट रही दुनियाँ सारी ।
’नारायण’ गोविन्द भजन बिन, मुफ्त जाय उमरा सारी ॥५॥