तोसे अरज करुँ साँवरिया, मोसे मन नहिं जीत्यो जाय ।
मन मेरा यह चंचल भारी, छिन-छिन लेवे राड़ उधारी ।
तोड़ फेंक दे ज्ञान पिटारी, ना कछु पार बसाय ॥१॥
मन मेरा यह चंचल घोड़ा, सत्संगका मानत नहीं कोड़ा ।
ज्ञान ध्यानका लंगर तोड़ा, पल- पल में हिन हिनाय ॥२॥
मन हाथी नहीं काबू मेरे, न्हाय धोय सिर धूल बखेरे ।
महावत को भी नीचा गेरे, जरा नहीं भय खाय ॥३॥
कैसे राखूँ मन को बस में, मन कर रक्खा मुझको बस में ।
’तुलसी’ का मन विषय कुरस में, पल-पलमें ललचाय ॥४॥