आंगिरस n. अंगिरसवंश के लोगों को यह शब्द कुलनाम के तौर पर लगाया जाता है । वंशावलि भी प्राप्त है
[छां. उ.१.२.१०] ;
[पं. ब्रा. २०.२.१] ;
[तै. सं.७.१.४. १] । (अंगिरस देखिये) । अथर्ववेद का प्रवर्तक अंगिरस है । इसके कुल के ऋषियों ने सत्र किया । यज्ञानुष्ठान के लिये दूध निकालने के लिये, इन्होनें एक गाय रखी थी । उस गाय का रंग सफेद था । अवर्षण के कारण, उस गाय को हरी घास मिलना बंद हो गया । यज्ञ में प्राप्त कूटे हुए सोम के अवशिष्टांश को खा कर, वह दिन बिता रही थी । भूख के कारण, उसकी होने वाली दुर्दशा अंगिरस देख नही सकता था । गाय के लिये काफी चारा यदि हम निर्माण नहीं कर सकते, तो सत्र प्रारंभ कर के क्या लाभ? इस प्रकार के विचार उन्हें कष्ट देने लगे । आगे चल कर इन्होने, ‘कारीरि’ इष्टि की । उससे भरपेट चाराप्राप्त होने लगा । परंतु पितरो ने नये चारे में विष उत्पन्न करने के कारण, गाय खराब होने लगी । परंतु पितरो को हविर्भाग देने पर, अंगिरसों को उत्कृष्ट चारा मिलने लगा तथा वह खूब दूध देने लगी ।
[तै. ब्रा.२.१.१] । इन्होने ही द्विरात्र याग शुरु किया
[तै.सं. ७.१.४] । अंगिरस के द्वारा रथीतर की पत्नी में उत्पन्न ब्रह्मक्षत्र संतति को आंगिरस कहते थे
[भा.९.६.३] । [ अभीवर्त, अभहीयु, अयास्य, आजीगर्ति, उचथ्य, उत्तान, उरु, ऊर्ध्वसध्मन, कुत्स, कृतयशस, कृष्ण, गृत्समद घोर, च्यवन, तिरश्वि, दिव्य, धरुण, ध्रुव, नृबैध, पवित्र, पुरुमिहळ, पुरुमेध, पुरुहन्मन, पूतदक्ष, प्रचेतस, प्रभूवसु प्रियवेध, बृहनत्ति, बृहस्पति, त्रैद भिक्षु, मूर्धन्वन्, हहूगण, वसुरोचिष, बिंदु, विरुप, विहव्य, वीतहव्य, शक्ति, व्यश्व, शिशु, शौनहोत्र, श्रुतकक्ष, संवनन, संवर्त, सहयुग, सव्य, सुकक्ष्य, सुदिति, सुधन्वन्, हरिमंत, हरिवर्ण हविष्मत्, हिरण्यदत् तथा हिरण्यस्तूप देखिये ]
आंगिरस II. n. भौत्य मनु का पुत्र ।
आंगिरस III. n. भीष्म के यहॉं आया हुआ ऋषि
[भा.१.९८] ।
आंगिरस IV. n. शुनक क नामांतर । इसने वभ्रु तथा सैन्धवायन को अथर्ववेद सिखाया
[भा.१२.७.३] ।