तुलसीदास कृत दोहावली - भाग ५

रामभक्त श्रीतुलसीदास सन्त कवि आणि समाज सुधारक होते. तुलसीदास भारतातील भक्ति काव्य परंपरेतील एक महानतम कवि होत.


श्रीरामकी कृपा

राम निकाई रावरी है सबही को नीक ।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥
तुलसी राम जो आदर्यो खोटो खरो खरोइ ।
दीपक काजर सिर धर्यो धर्यो सुधर्यो धरोइ ॥
तनु बिचित्र कायर बचन अहि अहार मन घोर ।
तुलसी हरि भए पच्छधर ताते कह सब मोर ॥
लहइ न फूटी कौंड़िहू को चाहै केहि काज ।
सो तुलसी महँगो कियो राम गरीब निवाज ॥
घर घर माँगे टूक पुनि भूपति पूजे पाय ।
जे तुलसी तब राम बिनु ते अब राम सहाय ॥
तुलसी राम सुदीठि तें निबल होत बलवान ।
बैर बालि सुग्रीव कें कहा कियो हनुमान ॥
तुलसी रामहु तें अधिक राम भगत जियँ जान ।
रिनिया राजा राम भे धनिक भए हनुमान ॥
कियो सुसेवक धरम कपि प्रभु कृतग्य जियँ जानि ।
जोरि हाथ ठाढ़े भए बरदायक बरदानि ॥
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप ।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरुप ॥
ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार ।
सोइ सच्चिदानंदघन कर नर चरित उदार ॥
हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान ।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान ॥
सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु ।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु ॥

भगवान की बाललीला

बाल बिभूषन बसन बर धूरि धूसरित अंग ।
बालकेलि रघुबर करत बाल बंधु सब संग ॥
अनुदिन अवध बधावने नित नव मंगल मोद ।
मुदित मातु पितु लोग लखि रघुबर बाल बिनोद ॥
राज अजिर राजत रुचिर कोसलपालक बाल ।
जानु पानि चर चरित बर सगुन सुमंगल माल ॥
नाम ललित लीला ललित ललित रूप रघुनाथ ।
ललित बसन भूषन ललित ललित अनुज सिसु साथ ॥
राम भरत लछिमन ललित सत्रु समन सुभ नाम ।
सुमिरत दसरथ सुवन सब पूजहिं सब मन काम ॥
बालक कोसलपाल के सेवकपाल कृपाल ।
तुलसी मन मानस बसत मंगल मंजु मराल ॥
भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल ।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जगजाल ॥
निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि ।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥

प्रार्थना

परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम ।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम ॥

भजनकी महिमा

बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं ।
भजिअ राम सब काम तजि अस बिचारि मन माहिं ॥
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य ।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य ॥
श्रीरघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान ।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥
लव निमेष परमानु जुग बरस कलप सर चंड ।
भजसि न मन तेहि राम कहँ कालु जासु कोदंड ॥
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम ।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोकधाम तजि काम ॥
बिनु सतसंग न हरिकथा तेहिं बिनु मोह न भाग ।
मोह गएँ बिनु रामपद होइ न दृढ अनुराग ॥
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु ।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न ल बिश्रामु ॥

N/A

References : N/A
Last Updated : January 18, 2013

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP