तुलसीदास कृत दोहावली - भाग ११
रामभक्त श्रीतुलसीदास सन्त कवि आणि समाज सुधारक होते. तुलसीदास भारतातील भक्ति काव्य परंपरेतील एक महानतम कवि होत.
काशीमहिमा
सोरठा
मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर ।
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥
शंकरमहिमा
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय ।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपालु संकर सरिस ॥
शंकरजीसे प्रार्थना
दोहा
बासर ढासनि के ढका रजनीं चहुँ दिसि चोर ।
संकर निज पुर राखिऐ चितै सुलोचन कोर ॥
अपनी बीसीं आपुहीं पुरिहिं लगाए हाथ ।
केहि बिधि बिनती बिस्व की करौं बिस्व के नाथ ॥
भगवल्लीलाकी दुर्ज्ञेयता
और करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु ।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु ॥
प्रेममें प्रपञ्च बाधक है
प्रेम सरीर प्रपंच रुज उपजी अधिक उपाधि ।
तुलसी भली सुबैदई बेगि बाँधिऐ ब्याधि ॥
अभिमान ही बन्धनका मूल है
हम हमार आचार बड़ भूरि भार धरि सीस ।
हठि सठ परबस परत जिमि कीर कोस कृमि कीस ॥
जीव और दर्पणके प्रतिबिम्बकी समानता
केहिं मग प्रबिसति जाति केहिं कहु दरपनमें छाहँ ।
तुलसी ज्यों जग जीव गति करि जीव के नाहँ ॥
भगवन्मायाकी दुर्ज्ञेयता
सुखसागर सुख नींद बस सपने सब करतार ।
माया मायानाथ की को जग जाननिहार ॥
जीवकी तीन दशाएँ
जीव सीव सम सुख सयन सपनें कछु करतूति ।
जागत दीन मलीन सोइ बिकल बिषाद बिभूति ॥
सृष्टि स्वप्नवत है
सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ ॥
हमारी मृत्यु प्रतिक्षण हो रही है
तुलसी देखत अनुभवत सुनत न समुझत नीच ।
चपरि चपेटे देत नित केस गहें कर मीच ॥
कालकी करतूत
करम खरी कर मोह थल अंक चराचर जाल ।
हनत गुनत गनि गुनि हनत जगत ज्यौतिषी काल ॥
इन्द्रियोंकी सार्थकता
कहिबे कहँ रसना रची सुनिबे कहँ किये कान ।
धरिबे कहँ चित हित सहित परमारथहि सुजान ॥
सगुणके बिना निर्गुणका निरूपण असम्भव है
ग्यान कहै अग्यान बिनु तम बिनु कहै प्रकास ।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु सो गुरु तुलसीदास ॥
निर्गुणकी अपेक्षा सगुण अधिक प्रामाणिक है
अंक अगुन आखर सगुन समुझिअ उभय प्रकार ।
खोएँ राखें आपु भल तुलसी चारु बिचार ॥
विषयासक्तिका नाश हुए बिना ज्ञान अधूरा है
परमारथ पहिचानि मति लसति बिषयँ लपटानि ।
निकसि चिता तें अधजरित मानहुँ सती परानि ॥
विषयासक्त साधुकी अपेक्षा वैराग्यवान गृहस्थ अच्छा है
सीस उधारन किन कहेउ बरजि रहे प्रिय लोग ।
घरहीं सती कहावती जरती नाह बियोग ॥
साधुके लिये पूर्ण त्यागकी आवश्यकता
खरिया खरी कपूर सब उचित न पिय तिय त्याग ।
कै खरिया मोहि मेलि कै बिमल बिबेक बिराग ॥
भगवतप्रेममें आसक्ति बाधक है, गृहस्थाश्रम नहीं
घर कीन्हें घर जात है घर छाँड़े घर जाइ ।
तुलसी घर बन बीचहीं राम प्रेम पुर छाइ ॥
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Last Updated : January 18, 2013
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