तुलसीदास कृत दोहावली - भाग १५
रामभक्त श्रीतुलसीदास सन्त कवि आणि समाज सुधारक होते. तुलसीदास भारतातील भक्ति काव्य परंपरेतील एक महानतम कवि होत.
दानी और याचकका स्वभाव
रुचै मागनेहि मागिबो तुलसी दानिहि दानु ।
आलस अनख न आचरज प्रेम पिहानी जानु ॥
प्रेम और वैर ही अनुकुलता और प्रतिकूलतामें हेतु हैं
अमिअ गारि गारेउ गरल गारि कीन्ह करतार ।
प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुध न गवाँर ॥
स्मरण और प्रिय भाषण ही प्रेमकी निशानी है
सदा न जे सुमिरत रहहिं मिलि न कहहिं प्रिय बैन ।
ते पै तिन्ह के जाहिं घर जिन्ह के हिएँ न नैन ॥
स्वार्थ ही अच्छाई-बुराईका मानदण्ड हैं
हित पुनीत सब स्वारथहिं अरि असुद्ध बिनु चाड़ ।
निज मुख मानिक सम दसन भूमि परे ते हाड़ ॥
संसारमें प्रेममार्गके अधिकारी बिरले ही हैं
माखी काक उलूक बक दादुर से भए लोग ।
भले ते सुक पिक मोरसे कोउ न प्रेम पथ जोग ॥
कलियुगमें कपटकी प्रधानता
हृदयँ कपट बर बेष धरि बचन कहहिं गढ़ि छोलि ।
अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिए मन खोलि ॥
कपट अन्ततक नहीं निभता
चरन चोंच लोचन रँगौ चलौ मराली चाल ।
छीर नीर बिबरन समय बक उघरत तेहि काल ॥
कुटिल मनुष्य अपनी कुटिलताको नहीं छोड़ सकता
मिलै जो सरलहि सरल ह्वै कुटिल न सहज बिहाइ ।
सो सहेतु ज्यों बक्र गति ब्याल न बिलहिं समाइ ॥
कृसधन सखहि न देब दुख मुएहुँ न मागब नीच ।
तुलसी सज्जन की रहनि पावकल पानी बीच ॥
संग सरल कुटिलहि भएँ हरि हर करहिं निबाहु ।
ग्रह गनती गनि चतुर बिधि कियो उदर बिनु राहु ॥
स्वभावकी प्रधानता
नीच निचाई नहिं तजइ सज्जनहू कें संग ।
तुलसी चंदन बिटप बसि बिनु बिष भए न भुअंग ॥
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु ।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु ॥
मिथ्या माहुर सज्जनहि खलहि गरल सम साँच ।
तुलसी छुअत पराइ ज्यों पारद पावक आँच ॥
सत्संग और असत्संगका परिणामगत भेद
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ ।
कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ॥
सुकृत न सुकृती परिहरइ कपट न कपटी नीच ।
मरत सिखावन देइ चले गीधराज मारीच ॥
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Last Updated : January 18, 2013
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