लाभ कहा कंचन तन पाये ।
भजे न मृदुल कमल-दल-लोचन, दुख-मोचन हरि हरखि न ध्याये ॥१॥
तन-मन-धन अरपन ना कीन्हों, प्रान प्रानपति गुननि न गाये ।
जोबन, धन कलधौत-धाम सब, मिथ्या आयु गँवाय गँवाये ॥२॥
गुरुजन गरब, बिमुख-रँग-राते डोलत सुख संपति बिसराये ।
ललितकिसोरी मिटै ताप ना, बिनु दृढ़ चिंतामनि उर लाये ॥३॥
मोहनके अति नैन नुकीले ।
निकसे जात पार हियराके, निरखत निपट गँसीले ॥
ना जानौं बेधन अनियतकी तीन लोकते न्यारी ।
ज्यों-ज्यों छिदत मिठास हियेमें सुख लागत सुकुमारी ॥
जबसों जमुना कूल बिलोक्यो, सब निसि-नींद न आवै ।
उठत मरोर बंक चितवनियाँ, उर उत्पात मचावै ॥
ललितकिसोरी आज मिलै, जहवाँ कुलकानि बिचारौं ।
आग लगै यह लाज निगोड़ी, दृग भरि स्याम निहारौं ।