दुनियाके परपंचोंमें हम मजा नहीं कछु पाया जी ।
भाई-बंधु, पिता-माता पति सबसों चित अकुलाया जी ॥
छोड़-छाड़ घर, गाँव-नाँव कुल, यही पंथ मन भाया जी ।
ललितकिसोरी आनँदघन सों अब हठि नेह लगाया जी ॥
क्या करना है संपति-संतति, मिथ्या सब जग माया है ।
शाल-दुशाले, हीरा-मोतीमें मन क्यों भरमाया है ॥
माता-पिता पती-बंधु सब गोरखधंध बनाया है ।
ललितकिसोरी आनँदघन हरि हिरदै कमल बसाया है ॥
बन-बन फिरना बिहतर हमको रतन भवन नहिं भावै है ।
लतातरे पड़ रहनेमें सुख नाहिन सेज सुहावै है ॥
सोना कर धरि सीस भला अति तकिया ख्याल न आवै है ।
ललितकिसोरी नाम हरीका जपि-जपि मन सचुपावै है ॥
तजि दीनीं जब दुनिया-दौलत फिर कोईके घर जाना क्या ।
कंद मूल-फल पाय रहैं अब खट्टा-मीठा खाना क्या ॥
छिनमें साही बकसैं हमको मोतीमाल खजाना क्या ।
ललितकिसोरी रुप हमारा जानै नाँ तहँ आना क्या ॥
अष्टसिद्धि नवनिद्धि हमारी मुट्ठीमें हरदम रहतीं ।
नहीं जवाहिर, सोना-चाँदी, त्रिभुवनकी संपति चहतीं ॥
भावै ना दुनियाकी बातैं दिलवरकी चरचा सहती ।
ललितकिसोरी पार लगावैं मायाकी सरिता बहती ॥
गौर-स्याम बदनारबिंदपर जिसको बीर मचलते देखा ।
नैन बान, मुसक्यान संग फँस फिर नहिं नेक सँभलते देखा ॥
ललितकिसोरी जुगुल इश्कमें बहुतोंका घर घलते देखा ।
डूबा प्रेमसिंधुका कोई हमने नहीं उछलते देखा ॥
देखौ री, यह नंदका छोरा बरछी मारे जाता है ।
बरछी-सी तिरछी चितवनकी पैनी छुरी चलाता है ॥
हमको घायल देख बेदरदी मंद मंद मुसकाता है ।
ललितकिसोरी जखम जिगरपर नौनपुरी बुरकाता है ॥