कार्तिक शुक्लपक्ष व्रत - प्रबोधैकादशीकृत्य

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


प्रबोधैकादशीकृत्य

( मदनरत्न ) -

यह तो प्रसिद्ध ही है कि आषाढ़ शुक्लसे कार्तिक शुक्लपर्यन्त ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वरुण, कुबेर, सूर्य और सोमादि देवोंसे वन्दित, जगान्निवास, योगेश्वर क्षीरसागरमें शेषशय्यापर चार मास शयन करते हैं और भगवद्भक्त उनके शयनपरिवर्तन और प्रबोधके यथोचित कृत्य दत्तचित होकर यथासमय करते हैं । उनमें दो कृत्य आषाढ़ और भाद्रपदके व्रतोंमें प्रकाशित हो चुके हैं और तीसरे ( प्रबोध ) का विधान यहाँ प्रकट किया जाता है । यद्यपि भगवान् क्षणभर भी कभी सोते नहीं, तथापि ' यथा देहे तथा देवे ' माननेवाले उपासकोंको शास्त्रीय विधान अवश्य करना चाहिये । यह कृत्य कार्तिक शुक्ल एकादशीको रात्रिके समय किया जाता है । उस समय शयन करते हुए हरिको जगानेके लिये

( १ ) सुभाषित स्तोत्रपाठ, भगवत्कथा और पुराणादिका श्रवण और भजनादिका ' गायन ',

( २ ) घंटा, शङ्ख, मृदंग, नगारे और वीणा आदिका ' वादन ' और

( ३ ) विविध प्रकारके देवोपम खेल - कूद, लीला और नाच आदिके द्वारा भगवानको जगाये और साथ ही

' उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते । त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम् ॥'

उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव । गता मेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः ॥'

' शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव ।'

इन मन्त्नोंका उच्चारण करे । अनन्तर भगवानके मन्दिर ( अथवा सिंहासन ) को नाना प्रकारके लता - पत्र, फल - पुष्प और बंदनवार आदिसे सजावे और ' विष्णुपूजा ' - या ' पञ्चदेव - पूजाविधान ' अथवा ' रामार्चनचन्द्रिका ' आदिके अनुसार भली प्रकार पूजन करे और समुज्ज्वल घृतवर्तिका या कर्पूरादिको प्रज्वलित करके नीराजन ( आरती ) करे । अनन्तर

' यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन । तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥'

से पुष्पाञ्जलि अर्पण करके ' इयं तु द्वादशी देव प्रबोधाय विनिर्मिता । त्वयैव सर्वलोकानां हितार्थं शेषशायिना ॥'

' इद्रं व्रतं मया देव कृतं प्रीत्यै तव प्रभो । न्यूनं सम्पूर्णतां यातु त्वत्प्रसादाज्जनार्दन ॥'

से प्रार्थना करे और प्रह्हाद, नारद, पराशर, पुण्डरीक, व्यास, अम्बरीष, शुक, शौनक और भीष्मादि भक्तोंका स्मरण करके चरणामृत, पञ्चामृत या प्रसादका वितरण करे । इसके पीछे एक रथमें भगवानको विराजमान करके नरवाहनद्वारा उसे संचालित कर नगर, ग्राम या गालियोंमें भ्रमण कराये । जो मनुष्य उस रथके वाहक बनकर उसको चलाते हैं, उनको प्रत्येक पदपर यज्ञके समान फल होता है । जिस समय वामनभगवान् तीन पद भूमि लेकर विदा हुए थे, उस समय सर्वप्रथम दैत्यराज ( बलिराजा ) ने वामनजीको रथमें विराजमान कर स्वयं उसे चलाया था । अतः इस प्रकार करनेसे

' समुत्थिते ततो विष्णौ क्रियाः सर्वाः प्रवर्तयेत् ' ।

के अनुसार विष्णुभगवान् योगनिद्राको त्यागकर प्रत्येक प्रकारकी क्रिया करनेमें प्रवृत्त हो जाते हैं और प्राणिमात्रका पालन - पोषण और संरक्षण करते हैं । प्रबोधिनीकी पारणामें रेवतीका अन्तिम तृतीयांश हो तो उसको त्यागकर भोजन करना चाहिये ।

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Last Updated : January 22, 2009

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