नवरात्र ( नानाशास्त्र - पुराणादि ) -
ये चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघकी शुक्ल प्रतिपदासे नवमीतक नौ दिनके होते हैं; परंतु प्रसिद्धिमें चैत्र और आश्विनके नवरात्र ही मुख्य माने जाते हैं । इनमें भी देवीभक्त आश्विनके नवरात्र आधिक करते हैं । इनको यथाक्रम वासन्ती और शारदीय कहते हैं । इनका आरम्भ चैत्र और आश्विन शुक्ल प्रतिपदाको होता है । अतः यह प्रतिपदा ' सम्मुखी ' शुभ होती है । नवरात्रोंके आरम्भमें अमायुक्त प्रतिपदा अच्छी नहीं । ...... आरम्भमें घटस्थापनके समय यदि चित्रा और वैधूति हो तो उनका त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि चित्रामें धनका और वैधृतिमें पुत्रका नाश होता है । ..... घटस्थापनका समय ' प्रातःकाल ' है । अतः उस दिन चित्रा या वैधृति रात्रितक रहें ( और रात्रिमें नवरात्रोंका स्थापन या आरम्भ होता नहीं, ) तो या तो वैधृत्यादिके आद्य तीन अंश त्यागकर चौथे अंशमें करे या मध्याह्लके समय ( अभिजित् मुहूर्तमें ) स्थापन करे । स्मरण रहे कि देवीका आवाहन, प्रवेशन, नित्यार्चन और विसर्जन - ये सब प्रातःकालमें शुभ होते हैं । अतः उचित समयका अनुपयोग न होने दे । ... स्त्री हो या पुरुष, सबको नवरात्र करना चाहिये । यदि कारणवश स्वयं न कर सकें तो प्रतिनिधि ( पति - पत्नी, ज्येष्ठ पुत्र, सहोदर या ब्राह्मण ) द्वारा करायें । ....... नवरात्र नौ रात्रि पूर्ण होनेसे पूर्ण होता है । इसलिये यदि इतना समय न मिले या सामर्थ्य न हो तो सात, पाँच, तीन या एक दिन व्रत करे और व्रतमें भी उपवास, अयाचित, नक्त या एकभुक्त - जो बन सके यथासामर्थ्य वही कर ले । ...... यदि नवरात्रोंमें घटस्थापन करनेके बाद सूतक हो जाय तो कोई दोष नहीं, परंतु पहले हो जाय तो पूजनादि स्वयं न करे । .... चैत्रके नवरात्रमें शक्तिकी उपासना तो प्रसिद्ध ही हैं, साथ ही शक्तिधरकी उपासना भी की जाती है । उदाहरणार्थ एक ओर देवीभागवत कालिकापुराण, मार्कण्डेयपुराण, नवार्णमन्त्नके पुरश्चरण और दुर्गापाठकी शतसहस्त्रायुतचण्डी आदि होते हैं तो दूसरी ओर श्रीमद्भागवत, अध्यात्मरामायण, वाल्मीकीय रामायण, तुलसीकृत रामायण, राममन्त्न - पुरश्चरण एक - तीन - पाँच - सात दिनकी या नवाह्लिक अखण्ड रामनामधव्नि और रामलीला आदि किये जाते हैं । यही कारण है कि ये ' देवी - नवरात्र ' और ' राम - नवरात्र ' नामोंसे प्रसिद्ध हैं । ......नवरात्रका प्रयोग प्रारम्भ करनेके पहले सुगन्धयुक्त तैलके उद्वर्तनादिसे मङ्गलस्त्रान करके नित्यकर्म करे और स्थिर शान्तिके पवित्र स्थानमें शुभ मृत्तिकाकी वेदी बनाये । उसमें जौ और गेहूँ - इन दोनोंको मिलाकर बोये । वहीं सोने, चाँदी, ताँबे या मिट्टीके कलशको यथाविधि स्थापन करके गणेशादिका पूजन और पुण्याहवाचन करे और पीछे देवी ( या देव ) के समीप शुभासनपर पूर्व ( या उत्तर ) मुख बैठकर
' मम महामायाभगवती ( वा मायाधिपति भगवत् ) प्रीतये ( आयुर्बलवित्तारोयसमादरादिप्राप्तये वा ) नवरात्रव्रतमहं करिष्ये ।'
यह संकल्प करके मण्डलके मध्यमें रखे हुए कलशपर सोने, चाँदी, धातु, पाषाण, मृत्तिका या चित्रमय मूर्ति विराजमान करे और उसका आवाहन आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्त्रान, वस्त्र, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल, नीराजन, पुष्पाञ्जलि, नमस्कार और प्रार्थना आदि उपचारोंसे पूजन करे । इसके बाद यदि सामर्थ्य हो तो नौ दिनतक नौ ( और यदि सामर्थ्य न हो तो सात, पाँच, तीन या एक ) कन्याओंको देवी मानका उनको गन्ध - पुष्पादिसे अर्चित करके भोजन कराये और फिर आप भोजन करे । व्रतीको चाहिये कि उन दिनोंमें भुशयन, मिताहार, ब्रह्मचर्यका पालन, क्षमा, दया, उदारता एवं उत्साहदिकी वृद्धि और क्रोध, लोभ, मोहादिका त्याग रखे । इस प्रकार नौ रात्रि व्यतीत होनेपर दसवें दिन प्रातःकालमें विसर्जन करे तो सब प्रकारके विपुल सुख - साधन सदैव प्रस्तुत रहते हैं और भगवान ( या भगवती ) प्रसन्न होते हैं ।
१. ' प्रतिपत्समुखी कार्या या भवेदापराह्णिकी ॥' ( स्कन्द )
२. ' अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिपद् पूजने मम ।' ( देवीभागवत )
३. ' प्रारभ्यं नवरात्रं स्थाद्धित्वा चित्रां च वैधृत्तिम् ।' ( देवीभागवत )
४. ' वैधृतौ पुत्रनाशः स्याच्चिंत्रायां धननाशनम् ।' ( रुद्रयामल )
५. भास्करोदयामारभ्य यावत्तु दश नाडिकाः ।
प्रातःकाल इति प्रोक्तः स्थापनारोपणादिषु ॥ ( विष्णुधर्म )
६. ' न च कुम्भाभिषेचनम् ।' ( रुद्रयामल )
७. ' त्याज्या अंशास्त्रयस्त्वाद्यास्तुरीयांशे तु पूजनम् ।' ( भविष्य )
८. सम्पूर्णा प्रतिपद्धयेव चित्रायुक्ता यदा भवेत् ।
वैधृत्या वापि युक्ता स्यात् तदा माध्यन्दिने रवौ ॥
अभिजित्तु मुहूर्तं यत् तत्र स्थापनमिष्यते । ( रुद्रयामल )
९. प्रातरावाहयेद् देवीं प्रातरेव विसर्जयेत् ॥ ( देवीपुराण )
१०. ' स्वयं वाप्यन्यतो वापि पूजयेत् पूजयीत वा ।'
एकभक्तेन नक्तेनायाचितोपोषितैः क्रमात् ॥ ( दिक्षित )
११. व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धे होमेऽर्चने जपे ।
प्रारब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम् ॥ ( विष्णु )
१२. ' त्रिकालं पूजयेद् देवीं जपस्तोत्रपरयणः । ( देवीभागवत )