व्यासजी बोले - महाबुद्धिमान् पुत्र शुकदेव ! तुम और मेरे अन्य शिष्यगण भी मेरे द्वारा कही जानेवाली इस पापहारिणी कथाको सुनो ॥१॥
पूर्वकालमें कोई वेदशास्त्रविशारद श्रेष्ठ ब्राह्मण अपनी पत्नीकी मृत्यु हो जानेपर तीर्थमें गया और वहाँ उसने विधिपूर्वक स्नान किया और विजन ( एकान्त ) - में रहकर उत्तम तपस्या की । तत्त्पश्चात् दारकर्म ( विवाह ) - की इच्छा न रखकर वह परदेशमें रहता हुआ भिक्षा माँगकर जीवननिर्वाह करने और जप, स्नान आदि उत्तम कर्ममें तत्पर रहने लगा । गङ्गा, यमुना, सरस्वती, पावन वितस्ता ( झेलम ) और गोमती आदिमें स्नान करके वह गयामें पहुँचा और वहाँ अपने पिता - पितामह आदिका तर्पण करके महेन्द्र पर्वतपर गया । वहाँ उस परम बुद्धिमान् द्विजने पर्वतीय कुण्डोंमें स्नान करनेके पश्चात् ऋषिश्रेष्ठ भृगुनन्दन परशुरामजीका दर्शन किया; फिर पूर्ववत् पितरोंके लिये तर्पण करके चलते - चलते एक वनमें प्रवेश किया, जो पापोंका नाश करनेवाला था ॥२ - ५॥
वहाँ एक पर्वतसे बहुत बड़ी धारा गिरती थी, जो निश्शेष पापराशिका विनाश करनेवाली थी । उसके जलको लेकर ब्राह्मणने भक्तिपूर्वक भगवान् नृसिंहके मस्तकपर चढ़ाया । इससे उसी समय उसका शरीर विशुद्ध हो गया । फिर विन्ध्याचल पर्वतपर स्थित होकर भक्तों और मुनीश्वरोंसे सदा पूजित होनेवाले अनन्त अच्युत भगवान् विष्णुकी सुन्दर पर्वतीय पुष्पोंसे पूजा करता हुआ वह ब्राह्मण सिद्धिकी कामनासे वहीं ठहर गया ॥६ - ७॥
इस तरह दीर्घकालतक उसने पूजा की । उससे प्रसन्न होकर वे भगवान् नृसिंह गाढ़ निद्रामें सोये हुए अपने उस भक्तसे स्वप्नमें दर्शन देकर बोले - ' ब्रह्मन ! किसी आश्रमधर्मको स्वीकार करके न चलना गृहस्थकी मर्यादाके भङ्गका कारण होता है; अतः यदि तुम्हें गृहस्थ नहीं रहना है तो किसी दूसरे उत्तम आश्रमको ग्रहण करो । ब्रह्मन् ! जो किसी आश्रममें स्थित नहीं है, वह यदि वेदोंका पारगामी विद्वान् हो, तो भी मैं यहाँ उसपर अनुग्रह नहीं करता; परंतु साधुवर ! तुम्हारी निष्ठा देखकर मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, इसीसे मैंने तुमसे यह बात कही हैं ' ॥८ - ९॥
उन परमेश्वरके इस प्रकार कहनेपर उस ब्राह्मणने भी अपनी बुद्धिसे नृसिंहस्वरुप श्रीहरिके उस कथनपर विचार करके उसे अलङ्घनीय माना और सम्पूर्ण जगतका बाध ( त्याग ) करके वह संन्यासी हो गया ॥१०॥
फिर प्रतिदिन उस पापहारी जलमें डुबकी लगाकर तथा उसीमें खड़ा रहकर त्रिदण्ड और अक्षमाला धारण करनेसे पवित्र हाथोंवाला वह ब्राह्मण मन - ही - मन भगवान् विष्णुका स्मरण करता हुआ निर्दोष गायत्री - मन्त्रका जप करने लगा । नित्यप्रति शुद्ध आदिदेव भगवान् विष्णुका हदयमें ध्यान करके उनके नृसिंह - विग्रहका पूजन करता और वनवासी हो किसी प्रकार शाक आदि खाकर भिक्षावृत्तिसे ही संतोषपूर्वक रहता था । विस्तृत एकान्त प्रदेशमें कुशासनपर बैठकर वह इन्द्रियोंके समस्त बाह्य विषयों तथा भेदबुद्धिको हदयस्थित भगवान् अनन्तमें विलीन करके विज्ञेय, अजन्मा, विराटू, सत्यस्वरुप, श्रेष्ठ, कल्याणधाम आनन्दमय परमेश्वरका चिन्तन करता हुआ आयु पूरी होनेपर शरीर त्यागकर मुक्त एवं परमात्मस्वरुप हो गया ॥११ - १४॥
जो लोग मोक्ष - सम्बन्धिनी अथवा मोक्षको ही उत्कृष्ट बनानेवाली इस कथाको भगवान् नृसिंहका स्मरण करते हुए पढ़ते हैं, वे प्रयागातीर्थमें स्नान करनेसे जो फल होता है, उसे पाकर अन्तमें भगवान् विष्णुके महान् पदको प्राप्त कर लेते हैं । बेटा ! तुम्हारे पूछनेसे मैंने यह उत्तम, पवित्र, पुण्यतम एवं पुरातन उपाख्यान, जो संसारवृक्षका नाश करनेवाला है, तुमसे कहा है; अब और क्या सुनना चाहते हो ? अपना मनोरथ प्रकट करो ॥१५ - १६॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१४॥