श्रीसूतजी बोले -- इक्ष्वाकुके ज्येष्ठ पुत्रका नाम था विकुक्षि । वह अपने पिताके मुक्त हो जानेपर महर्षियोंद्वारा राज्यपदपर अभिषिक्त हुआ और धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करने लगा । राजा विकुक्षिने विमानपर विराजमान शेषशायी भगवान् विष्णुकी आराधना करते हुए अनेक यज्ञोंद्वारा देवताओंका भी यजन किया । अन्तमें वे अपने पुत्र सुबाहुको राज्यपर अभिषिक्तकर स्वयं स्वर्गगामी हो गये । अब तेजस्वी राजा सुबाहुके पुत्र उद्योतका यशोगान किया जाता है । उद्योतने सातों द्वीपोंवाली पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया । उन्होंने अपने पितामह राजा इक्ष्वाकुकी ही भाँति भगवान् नारायणमें पराभक्ति करके प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा यज्ञपति विष्णुका निष्कामभावसे यजन किया तथा नित्य, निरञ्जन, निर्विकल्प, अमृत, अक्षर, परम, ज्योतिर्मय परमात्मरुपका चिन्तन करते हुए श्रीविष्णु और अनन्तकी आराधना करके वे परमधामको प्राप्त हुए ॥१॥
उनके पुत्र युवनाश्च हुए, युवनाश्वके उपत्र मांधता । मांधाता स्वभावसे ही भगवान् विष्णुके भक्त थे । महर्षियोने जब उनका राज्याभिषेक कर दिया, तब शेषशायी भगवान् विष्णुकी भक्तिपूर्वक आराधन तथा विविध यज्ञोंद्वारा यजन करते हुए उन्होंने सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीका पालन किया और अन्तमें उनका वैकुण्ठवास हुआ ॥२॥
मांधाताके ही विषयमें यह श्लोक अबतक गाया जाता है -
' जहाँसे सूर्य उदय होता और जहाँतक जाकर अस्त होता है, वह सब युवनाश्वके पुत्र मांधाताका ही क्षेत्र कहलाता है ' ॥३॥
मांधाताका पुत्र पुरुकुश्य ( या पुरुकुत्स ) हुआ, जिसने यज्ञ और दानके द्वारा देवताओं तथा ब्राह्मणोंको संतुष्ट किया था । पुरुकुश्यसे दृषद और दृषदसे अभिशम्भु हुआ । अभिशम्भुसे दारुण और दारुणसे सगरका जन्म हुआ । सगरसे हर्यश्च, हर्यश्वसे हारीत, हारीतसे रोहिताश्च, रोहिताश्वसे अंशुमान और अंशुमानसे भगीरथ हुए, जो पूर्वकालमें बहुत बड़ी तपस्या करके समस्त पापोंका नाश करनेवाली और चारों पुरुषार्थोको देनेवाली गङ्गाजलके स्पर्शसे अपने ' सागर ' संज्ञक पितरोंको, जो महर्षि कपिलके शापसे दग्ध होकर अस्थि - भस्मामात्र शेष रह गये थे, स्वर्गलोकको पहुँच दिया । भगीरथसे सौदास और सौदाससे सत्रसवका जन्म हुआ । सत्रसवसे अनरण्य और अनरण्यसे दीर्घबाहु हुआ । दीर्घबाहुसे अज तथा अजसे दशरथ हुए । इनके घरमें साक्षात् भगवान् नारायण रावणका नाश करनेके लिये ' राम ' रुपमें अवतीर्ण हुए थे ॥४ - ९॥
राम अपने पिताके कहनेसे छोटे भाई लक्ष्मण तथा पत्नीसहित दण्डकारण्यमें जाकर तपस्या करने लगे । उस वनमें रावणने इनकी पत्नी सीताका अपहरण कर लिया । इससे दुःखी होकर वे अपने भाई लक्ष्मणको साथ लेकर अनेक करोड़ वानर - सेनाके अधिपति सुग्रीवको सहायक बनाकर चले और महासागरमें पुल बाँधकर उन सबके साथ लङ्कामें जा पहुँचे । वहाँ देवताओंके मार्गका काँटा बने हुए रावणको उसके बन्धु - बान्धवोंसहित मारकर सीताको साथ ले पुनः अयोध्यामें लौट आये । अयोध्यामें भरतजीने उनका ' राजा ' के पदपर अभिषेक किया । श्रीरामने विभीषणको लङ्काका राज्य तथा ( विष्णुप्रतिमायुक्त ) विमान देकर अयोध्यासे विदा किया । विमानपर विराजमान परमेश्वर विष्णु विभीषणद्वारा ले जाये जानेपर भी राक्षसपुरी लङ्कामें निवास करना नहीं चाहते थे, अतः विभीषणने वहाँ जिस पवित्र वनकी स्थापना की थी, उसको देखकर वे उसीमें स्थित हो गये । वहाँ महान् सर्प - शरीरकी शय्यापर भगवान् शयन करते हैं । विभीषण भी जब वहाँसे उस विमानको ले जानेमें असमर्थ हो गये, तब भगवानके ही कहनेसे वे उन्हें वहीं छोड़ अपनी पुरी लङ्काको चले गये ॥१० - ११॥
भगवान् नारायणकी उपस्थितिसे वह स्थान महान् वैष्णवतीर्थ हो गया, जो आज भी श्रीरङ्गक्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध देखा जाता है । रामसे लव, लवसे पद्म, पद्मसे ऋतुपर्ण, ऋतुपर्णसे अस्त्रपाणि, अस्त्रपाणिसे शुद्धोदन और शुद्धोदनसे बुध ( बुद्ध ) - की उत्पत्ति हुई; बुधसे इस वंशकी समाप्ति हो जाती है ॥१२॥
मैंने यहाँ आपके समक्ष पूर्ववती उन प्रधान - प्रधान महाबली सूर्यवंशी राजाओंका नामोल्लेख किया है, जिन्होंने धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन और यज्ञ - क्रियाओंद्वारा देवताओंका भी पोषण किया था ॥१३॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' सूर्यवंशका अनुचरित ' नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२६॥