मार्कण्डेयजी बोले - राजन् ! जिन्होंने पूर्वकालमें राजा बलिके यज्ञमें सहस्त्रों दैत्योंका संहार किया था, उन भगवान् वामनका चरित्र संक्षेपसे सुनो ॥१॥
पहलेकी बात है, विरोचनका पुत्र बलि महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न हो इन्द्र आदि समस्त देवताओंको जीतकर त्रिभुवनका राज्य भोग रहा था । नृपवर ! उसके द्वारा खण्डित हुए देवतालोग बहुत दुबले हो गये थे । राज्य नष्ट हो जानेसे इन्द्र और अधिक कृश हो गये थे । राज्य नष्ट हो जानेसे इन्द्र और अधिक कृश हो गये थे । उन्हें इस दशामें देखकर देवमाता आदितिने बहुत बड़ी तपस्या की । उन्होंने भगवान् जनार्दनको प्रणाम करके अभीष्ट वाणीद्वारा उनका स्तवन किया । अदितिकी स्तुतिसे प्रसन्न हो देवाधिदेव मधुसूदन जनार्दन उनके सम्मुख उपस्थित हो बोले - ' सौभाग्यशालिनि ! मैं बलिको बाँधनेके लिये तुम्हारा पुत्र होऊँगा ।' उनसे योम कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये और अदिति भी अपने घर चली गयीं ॥२ - ६॥
राजन् ! तदनन्तर समय आनेपर अदितिने कश्यपजीसे गर्भ धारण किया । उस गर्भसे वामनरुपमें साक्षात् भगवान् जगन्नाथ ही प्रकट हुए । वामनजीका अवतार होनेपर लोकपितामह ब्रह्मजी वहाँ आये । उन्होंने उनके जातकर्मादि सम्पूर्ण समयोचित संस्कार सम्पन्न किये । उपनयन - संस्कारके बाद वे सनातन भगवान् ब्रह्मचारी होकर अदितिकी आज्ञा ले राजा बलिकी यज्ञशालामें गये । चलते समय उनके चरणोंके आघातसे पृथ्वी काँप उठती थी । दानवगण बलिके यज्ञसे हविष्य ग्रहण करनेमें असमर्थ हो गये । वहाँकी आग बुझ गयी । ऋत्विकगण मन्त्रोच्चारणमें त्रुटि करने लगे । यह विपरीत कार्य देखकर महाबली बलिने शुक्राचार्यसे कहा ' मुने ! ये महान् असुरगण यज्ञका भाग क्यों नहीं ग्रहण कर रहे हैं ? अग्नि क्यों शान्त हो रही है ? विप्रवर ! यह पृथ्वी क्यों डगमगा रही है तथा ये सम्पूर्ण ऋत्विज् मन्त्रभ्रष्ट क्यों हो रहे हैं ? ' बलिके इस प्रकार पूछनेपर शुक्राचार्यने उस दानवराजसे कहा - ॥७ - १३॥
शुक्र बोले - असुरराज बलि ! तुम मेरी बात सुनो । तुमने देवताओंको जीतकर स्वर्गसे निकाल दिया है ; उन्हें पुनः उनका राज्य देनेके लिये जगतके उत्पत्तिस्थान देवदेव भगवान् विष्णु अदितिके गर्भसे वामनरुपमें प्रकट हुए हैं । असुरराज ! वे ही तुम्हारे यज्ञमें आ रहे हैं, अतः उन्होंके पादविन्यास ( पाँव रखने ) - से कम्पित हो यह सारी पृथ्वी आज हिलने लगी है तथा उन्हींके निकट आ जानेके कारण असुरगण आज यज्ञमें हविष्य ग्रहण नहीं कर रहे हैं । बले ! वामनके आगमनसे ही तुम्हारे यज्ञकी आग भी बुझ गयी है और ऋत्विज् भी श्रीहीन हो गये हैं । इस समयका होममन्त्र असुरोमकी सम्पत्तिको नष्ट कर रहा है और देवताओंका उत्तम वैभव बढ़ रहा है ॥१४ - १७ १/२॥
उनके इस प्रकार कहनेपर बलिने नीतिज्ञोमें श्रेष्ठ शुक्राचार्यजीसे कहा - ' ब्रह्मन् ! महाभाग ! आप मेरी बात सुनें । यज्ञमें वामनजीके पधारनेपर उन बुद्धिमान् वामनजीके लिये मुझे क्या करना चाहिये, वह हमें बताइये; क्योंकि आप मेरे परम गुरु हैं ' ॥१८ - १९ १/२॥
मार्कण्डेयजी बोले - नरेश्वर ! राजा बलिके इस प्रकार पूछनेपर शुक्राचार्यजीने उनसे कहा - '' राजन् ! अब मेरी भी राय सुनो । बले ! वे देवताओंका हित करने और तुम लोगोंके विनशाके लिये ही तुम्हारे यज्ञमें पधार रहे हैं, इसमें संदेह नहीं हैं । अतः जब भगवान् वामन यहाँ आ जायँ, तब उन महात्माके लिये ' मैं आपको यह वस्तु देता हूँ ' यों कहकर कुछ देनेकी प्रतिज्ञा न करना ' ॥२० - २२ १/२॥
उनकी यह बात सुनकर बलवानोंमें श्रेष्ठ बलिने अपने पुरोहित शुक्राचार्यजीसे यह सुन्दर बात कही ' गुरुदेव शुक्र ! यज्ञमें मधुसूदन भगवान् वामनके पधारनेपर मैं उन्हें कुछ भी देनेसे इनकार नहीं कर सकता । अभी - अभी मैं आपसे कह चुका हूँ कि दूसरे प्राणी भी यदि मुझसे कुछ याचना करेंगे तो मैं उन्हें वह वस्तु देनेसे इनकार नहीं कर सकता; फिर शार्ङ्ग धनुष धारण करनेवाले साक्षात् भगवान् विष्णु ( वासुदेव ) मेरे यज्ञमें पधारें और मैं उनकी मुँहमाँगी वस्तु उन्हें देनेसे इनकार कर दूँ, यह कैसे सम्भव होगा ? ब्राह्मणदेव ! यहाँ भगवान् वामनके पदार्पण करनेपर आप उनके कार्यमें विघ्न न डालियेगा । वे जो - जो द्रव्य माँगेंगे, वही - वही मैं उन्हें दूँगा । मुनिश्रेष्ठ ! यदि सचमुच ही यहाँ भगवान् वामन पधार रहे हैं तो मैं कृतार्थ हो गया ' ॥२३ - २७॥
राजा बलि जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय वामनजीने आकर यज्ञशालामें प्रवेश किया और वे उनके उस यज्ञकी प्रशंसा करने लगे । राजन् ! उन्हें देखते ही दैत्याधिपति राजा बलिने सहसा उठकर पूजन - सामाग्रियोंसे उनकी पूजा की, फिर इस प्रकार कहा - ' देवदेव ! आप धन आदि जो - जो वस्तु माँगेंगे, वह सब मैं आपको दूँगा; इसलिये वामनजी ! आज आप मुझसे याचना कीजिये ' ॥२८ - ३०॥
' नृपेन्द्र ! बलिके यों कहनेपर उस समय देवेश्वर भगवान् वामनने उनसे यही याचना की कि मुझे अग्निशालाके लिये केवल तीन पग भूमि दीजिये, मुझे धनकी आवश्यकता नहीं है' ॥३१ १/२॥
भगवान् वामनके यों कहनेपर बलिने उनसे कहा - ' यदि तीन पग भूमिसे ही आपको संतोष है तो तीन पग भूमि मैंने आपको दे दी ' ॥३२ १/२॥
बलिके द्वारा यों कहे जानेपर भगवान् वामन उनसे बोले - ' यदि आपने मुझे तीन पग भूमि दे दी तो मेरे हाथमें संकल्पका जल दीजिये ' ॥३३ १/२॥
कहते हैं, उस समय वहाँ देवदेव भगवान् वामनजीके इस प्रकार आज्ञा देनेपर स्वयं राजा बलि जलसे भरे हुए सुवर्णकलशको लेकर भक्तिपूर्वक खड़े हो गये और ज्यों ही वामनजीके हाथमें जल देनेको उद्यत हुए, त्यों ही शुक्राचार्यने [ योगबलसे ] कलशमें घुसकर गिरती हुई जलधारा रोक दी । सत्तम ! तब वामनजीने क्रुद्ध होकर पवित्र ( कुश ) - के अग्रभागसे कलशके छेदमें जल निकलनेके मार्गपर स्थित हुए शुक्राचार्यकी एक आँख छेद डाली । नरोत्तम ! एक आँख छिद जानेपर शुक्राचार्य उसमेंसे निकल भागे ॥३४ - ३७॥
तत्पश्चात् वामनजीके हाथमें जलकी धारा गिरी । हाथपर जल पड़ते ही वामनजी क्षणभरमें ही बहुत बड़े हो गये । सत्तम ! उन्होंने एक पगसे यह सम्पूर्ण पृथ्वी नाप ली, द्वितीय पगसे अन्तरिक्षलोक तथा तृतीय पगसे स्वर्गलोकको आक्रान्त कर लिया । फिर अनेक दानवोंका संहार करके बलिसे त्रिभुवनका राज्य छीन लिया और यह त्रिलोकी इन्द्रको अर्पितकर पुनः बलिसे कहा - ' तुमने भक्तिपूर्वक आज मेरे हाथमें संकल्पका जल अर्पित किया है, इसलिये इस समय मैंने तुम्हें उत्तम पाताललोकका राज्य दिया । महाभाग ! वहाँ जाकर तुम मेरे प्रसादसे राज्य भोगो; वैवस्वत मन्वन्तर व्यतीत हो जानेपर तुम पुनः इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित होओंगे ' ॥३८ - ४२॥
तब बलिने भगवानको प्रणाम करके पातालतलमें जाकर वहाँ उत्तम भोगोंको प्राप्त किया । राजन् ! शुक्राचार्य भी भगवान् वामनकी कृपासे त्रिभुवनकी राजधानी स्वर्गमें आकर सब देवताओंके साथ सुखपूर्वक रहने लगे । जो मनुष्य प्रातः काल उठकर भगवान् वामनकी इस कथाका स्मरण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है । नृप ! इस प्रकार पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने वामनरुप धारणकर त्रिभुवनका राज्य बलिसे ले लिया और उसे कृपापूर्वक देवराज इन्द्रको अर्पित कर दिया । तत्पश्चात् वे क्षीरसागरको चले गये ॥४३ - ४६॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' वामनावतार ' विषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४५॥