श्रीहारीत मुनि बोले - महाभागगण ! इसके बाद मैं वानप्रस्थका लक्षण और श्रेष्ठ धर्म बताऊँगा; आप लोग मेरे द्वारा बताये जानेवाले उस धर्मको सुनें ॥१॥
गृहस्थ पुरुष जब यह देख ले कि मेरे पुत्र - पौत्र हो गये हैं तथा बाल भी पक गये हैं, तब वह अपनी भार्याको पुत्रोंकी देख - रेखमें सौंपकर स्वयं अपने शिष्योंके साथ वनमें प्रवेश करे । जटा, चीर ( वल्कल ) वस्त्र, नख, लोम आदि धारण किये हुए ही यज्ञोक्त विधिसे अग्निमें हवन करे । विद्वान् पुरुषको चाहिये कि पतोंवाले साग आदिसे या धरतीसे स्वयं उत्पन्न हुए नीवार आदिसे अथवा कंद - मूल - फल आदिसे प्रतिदिन आहारक्रियाका निर्वाह करे । प्रातः, मध्याह्न और सायं - तीनों कालोंमें स्नान करके सदा कठोर तपस्या करे । ' पराक ' आदि व्रतोंका पालन करता हुआ वानप्रस्थ पुरुष एक पक्ष या एक मासके बाद भोजन करे अथवा दिन - रातके चौथे या आठवें भागमें एक बार भोजन करे । अथवा छठे दिन कुछ भोजन करे या वायु पीकर ही रहे ॥२ - ६॥
ग्रीष्म - कालमें पञ्चाग्निके मध्य बैठे, वर्षाकालमें धारावृष्टि होनेपर बाहर आकाशके ही नीचे समय व्यतीत करे और हेमन्त - ऋतुमें तप करते हुए वह जलमें खड़ा रहकर समय बिताये । इस प्रकार कर्मभोगद्वारा आत्मशुद्धि करके, अग्निको भावनाद्वारा अन्तः करणमें स्थापितकर उत्तरदिशाको चला जाय । वह तपस्वी देहपात होनेतक वनमें मौन रहकर इन्द्रियातीत ब्रह्मका स्मरण करता हुआ देह त्यागकर ब्रह्मलोकमें पूजित होता है । जो द्विजश्रेष्ठ वनवासी ( वानप्रस्थ ) होकर महान् सत्त्वगुण और समाधिसे युक्त हो तपका अनुष्ठान करता है, वह पापरहित और प्रशान्तचित होकर विष्णुधामको प्राप्त होता है ॥७ १०॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' वानप्रस्थधर्म ' नामक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५९॥