सूतजी कहते हैं - द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार अबतक मैंने भूतलके प्रसिद्ध तीर्थोंका वर्णन किया; किंतु इन तीर्थोंकी अपेक्षा मानसतीर्थ विशेष फल देनेवाले हैं । वास्तवमें राग - द्वेषादिसे रहित मनकी स्वच्छता ही उत्तम तीर्थ है । सत्य, दया, इन्द्रियनिग्रह, गुरुसेवा, मातापिताकी सेवा, स्वधर्मपालन और अग्निकी उपासना - ये परम उत्तम तीर्थ हैं । यह तो पावन तीर्थोंका वर्णन हुआ, अब व्रतोंका वर्णन सुनिये ॥१ - ३ १/२॥
मुने ! दिन - रातमें एक बार भोजन करके रहना और विशेषतः रातमें भोजन न करना - यह व्रत हैं । पूर्णिमा और अमावास्याको एक ही बार भोजन करके रहना चाहिये । इन तिथियोंमें एक बार भोजन करके रहनेवाला मनुष्य पावन गतिको प्राप्त करता है । जो चतुर्थी, चतुर्दशी, सप्तमी, अष्टमी और त्रयोदशीको रातमें उपवस करता है, उसे मनोवाञ्छित वस्तुकी प्राप्ति होती है ॥४ - ६॥
मुनिश्रेष्ठ ! एकादशीको दिन - रात उपवास करनेका विधान है । उस दिन भगवान् विष्णुका पूजन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । यदि हस्त नक्षत्रसे युक्त रविवार हो तो उस दिन रात में उपवास करके सौरनक्त - व्रतका पालन करना चाहिये । उस दिन स्नानके पश्चात् सूर्यमण्डलमें भगवान् विष्णुका ध्यान करके मनुष्य रोगमुक्त हो जाता है । जब सूर्य अपनी दुगुनी छायामें स्थित हों, उस दिन और नक्तव्रतका समय है । उस समयसे लेकर राततक भोजन न करे ॥७ - ९॥
जो पुरुष बृहस्पतिवारको त्रयोदशी तिथि होनेपर अपराह्णकालमें जलमें स्नान करके तिल और तण्डुलोंद्वारा देवता, ऋषि एवं पितरोंका तर्पण करता है तथा भगवान् नरसिंहका पूजन करके उपवास करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥१० - ११॥
महामुने ! जब अगस्त्य तारेका उदय हो, उस समयसे लगातार सात रात्रियोंतक अगस्त्यमुनिकी पूजा करके उन्हें अर्घ्य देना चाहिये । शङ्खमें श्वेत पुष्प और अक्षतसहित जल रखकर श्वेत पुष्प आदिसे पूजित हुए अगस्त्यजीके प्रति निम्नाङ्कित मन्त्र - वाक्य पढ़कर अर्घ्य निवेदन करे - ' अग्नि और वायु देवतासे प्रकट हुए अगस्त्यजी ! काश पुष्पके समान उज्ज्वल वर्णवाले कुम्भज मुने ! मित्र और वरुणके पुत्र भगवान् कुम्भयोने ! आपको नमस्कार है । जिन्होंने महान् असुर आतापी और वातापीको भक्षण कर लिया और समुद्रको भी सोख डाला, वे अगस्त्यजी मुझपर प्रसन्न हों । ' इस प्रकार कहकर जो पुरुष अगस्त्यकी दिशा ( दक्षिण ) - के प्रति अर्घ्य अर्पण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो, दुस्तर मोहान्धकारसे पार हो जाता है ॥१२ - १६॥
महामुने ! भरद्वाजजी ! इस प्रकार मैंने मुनियोंके निकट यह पूरा ' नरसिंहपुराण ' आपको सुनाया । इसमें मैंने सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरितसभीका वर्णन किया है । मुने ! इस पुराणको सर्वप्रथम ब्रह्माजीने मरीचि आदि मुनियोंके प्रति कहा था । उन मुनियोंमेंसे भृगुजीने मार्कण्डेयजीके प्रति इसे कहा और मार्कण्डेयजीने नागकुलोत्पन्न राजा सहस्त्रानीकको इसका श्रवण कराया । फिर भगवान् नरसिंहकी कृपासे इस पुराणको बुद्धिमान् श्रीव्यासजीने प्राप्त किया । उनकी अनुकम्पासे मैंने इस सर्वपापनाशक पवित्र पुराणका ज्ञान प्राप्त किया और इस समय मैंने यह नरसिंहपुराण इन मुनियोंके निकट आपसे कहा । अब आपका कल्याण हो, मैं जा रहा हूँ ॥१७ - २१ १/२॥
जो मनुष्य पवित्र होकर इस उत्तम पुराणका श्रवण करता है, वह माघ मासमें प्रयागतीर्थमें स्नान करनेका फल प्राप्त करता है । जो मनुष्य इस नरसिंहपुराणको भगवानके भक्तोंके प्रति नित्य सुनाता है, वह सम्पूर्ण तीर्थोंके सेवनका फल प्राप्त करके विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥२२ - २३ १/२॥
इस प्रकार स्त्रातकोंके साथ इस पुराणको सुन महामति भरद्वाजजीने सूतजी का पूजन - सत्कार किया और स्वयं वहीं रह गये । अन्य सब मुनि अपने - अपने स्थानको चले गये ॥२४ १/२॥
यह नरसिंहपुराण समस्त पापोंको हर लेनेवाला और पुण्यमय है । जो इसको पढ़ते और सुनते हैं, उन मनुष्योंपर भगवान् नरसिंह प्रसन्न होते हैं । देवदेवेश्वर नरसिंहके प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण पापोका नाश हो जाता है और जिनके पाप बन्धन सर्वथा नष्ट हो गये हैं, वे मानव मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥२५ - २७॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणे ' मानसतीर्थ - व्रत ' नामक सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६७॥