मार्कण्डेयजी कहते हैं - भरतजीके अयोध्या लौट जानेपर कमललोचन श्रीरामचन्द्रजी अपनी भार्या सीता और भाई लक्ष्मणके साथ शाक और मूल - फल आदिके आहारासे ही जीवन - निर्वाह करते हुए उस महान् वनमें विचरने लगे । एक दिन परम प्रतापी भगवान् राम लक्ष्मणको साथ न ले जाकर चित्रकूट पर्वतके वनमें सीताजीकी गोदमें कुछ देरतक सोये रहे । इतनेमें ही एक दुष्ट कौएने सीताके सम्मुख आ उनके स्तनोंके बीच चोंच मारकर घाव कर दिया । घाव करके वह अधम काक वृक्षपर जा बैठा ॥१ - ४॥
तदनन्तर जब कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीकी नींद खुली, तब उन्होंने देखा, सीताके स्तनोंसे रक्त बह रहा है और वे शोकमें डूबी हुई हैं । यह देख उन्होंने रक्त बह रहा है और वे शोकमें डूबी हुई है । यह देख उन्होंने सीतासे पूछा - ' कल्याणि ! बताओ, तुम्हारे स्तनोंके बीचसे रक्त बहनेका क्या कारण है ?' उनके यों कहनेपर सीताने अपने स्वामीसे विनयपूर्वक कहा - ' राजेन्द्र ! महामते ! वृक्षकी शाखापर बैठे हुए इस दुष्ट कौएको देखिये; आपके सो जानेपर इसीने यह दुस्साहसपूर्ण कार्य किया है ' ॥५ - ७॥
रामचन्द्रजीने भी उस कौएको देखा और उसपर बहुत ही क्रोध दिया । फिर सींकका बाण बनाकर उसे ब्रह्मास्त्रमन्त्रसे अभिमन्त्रित किया और उस कौएको लक्ष्य करके चला दिया । यह देख वह भयभीत होकर भागा । राजन् ! कहते हैं, ह काक वास्तवमें इन्द्रका पुत्र जयन्त था, अतः भागकर इन्द्रलोकमें घुस गया । उसके साथ ही श्रीरामचन्द्रजीके उस प्रज्वलित एवं देदीप्यमान बाणने भी उसका पीछा करते हुए इन्द्रलोकमें प्रवेश किया । यह सब वृतान्त जान, देवराज इन्द्रने इन्द्रलोकमें प्रवेश किया । यह सब वृतान्त जान, देवराज इन्द्रने देवताओंके साथ मिलकर विचार किया तथा श्रीरामचन्द्रजीका अपराध करनेवाले उस दुष्ट पुत्रको वहाँसे निकाल दिया । जब सब देवताओंने उसे देवलोकसे बाहर कर दिया, तब वह पुनः राजा श्रीरामचन्द्रजीकी ही शरणमें आया और बोला - ' महाबाहो श्रीराम ! मैंने अज्ञानवश अपराध किया है, मुझे बचाइये ' ॥८ - १२॥
इस प्रकार कहते हुए जयन्तसे कमललोचन श्रीरामने कहा - ' अरे दुष्ट ! मेरा अस्त्र अमोघ है, अतः इसके लिये अपना कोई एक अङ्ग दे दे; तभी तू जीवित रह सकता है; क्योंकि तूने बहुत बड़ा अपराध किया है ।' उनके यों कहनेपर उसने श्रीरामके उस बाणके लिये अपना एक नेत्र दे दिया । उसके एक नेत्रको भस्म करके वह अस्त्र लौट आया । उसी समयसे सभी कौए एक नेत्रवाले हो गये । राजन् ! इसी कारण वे एक आँखसे ही देखते हैं ॥१३ - १४५ १/२॥
श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई और पत्नीके साथ चिरकालतक चित्रकूटपर निवास करनेके अनन्तर वहाँसे अनेक मुनिजनोंद्वारा सेवित दण्डकारण्यको चल दिये । उस समय वे तपस्वी वेषमें थे, उनके हाथमें धनुष और बाण थे तथा पीठपर तरकस बँधा था । वहाँ जानेपर महाबलवान् श्रीरामने उस वनमें रहनेवाले बड़े - बड़े मुनियोंका दर्शन किया, जिनमेंसे कई लोग केवल जलका आहार करनेवाले थे । कितने ही दन्तहीन होनेसे पत्थरपर कूट - पीसकर आहार ग्रहण करते, इसलिये ' अश्मकुट्ट ' कहलाते थे । कुछ तपस्वी दाँतोंसे ही ओखलीका काम लेनेवाले होनेसे ' दन्तोलूखली ' कहे जाते थे । कुछ पाँच अग्नियोंके बीचमें बैठकर तप करते थे और कुछ महात्मा इससे भी उग्र तपस्यामें तत्पर थे । उनका दर्शन करके श्रीरामने उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया और उन्होंने भी उनका अभिनन्दन किया ॥१६ - १९ १/२॥
तत्पश्चात् साक्षात् विष्णुस्वरुप महामति भगवान् श्रीराम वहाँके समस्त वनका अवलोकन करके अपनी भार्या और भाईके साथ आगे बढ़े । वे सीताजीको फूलोंसे सुशोभित तथा नाना आश्चर्योंसे युक्त सुन्दर वन दिखाते हुए जिसे समय धीरे - धीरे जा रहे थे, उसी समय उन्होंने सामने एक राक्षस देखा, जिसका शरीर काला और नेत्र लाल थे । वह पर्वतके समान स्थूल था । उसकी दाढ़ें चमकीली, भुजाएँ बड़ी - बड़ी और केश संध्याकालिक मेघके समान लाल थे । वह घनघोर गर्जना करता हुआ सदा दूसरोंका अपकार किया करता था । उसे देखते ही लक्ष्मणके साथ श्रीरामचन्द्रजीने धनुषपर बाण चढ़ाया तथा उस घोर राक्षसको, जो दूसरोंसे नहीं मारा जा सकता था, बींधकर मार डाला । इस प्रकार उसका वध करके उन्होंने उस महाकाय राक्षसकी लाशको पर्वतके खङ्डेमें डाल दिया और शिलाओंसे ढँककर वे वहाँसे शरभङ्गमुनिके आश्रमपर गये । वहाँ उन मुनिको प्रणाम करके उनके आश्रमपर कुछ देरतक विश्राम किया और उनके साथ कथा - वार्ता करके वे मन - ही - मन बहुत प्रसन्न हुए ॥२० - २५॥
वहाँसे सुतीक्ष्णमुनिके आश्रमपर जाकर श्रीरामने उन महर्षिका दर्शन किया और कहते हैं, उन्हींके बताये हुए मार्गसे जाकर वे अगस्त्यमुनिसे मिले । वहाँ श्रीरघुनाथजीने उनसे एक निर्मल खङ्ग तथा वैष्णव धनुष प्राप्त किये और जिसमें रखा हुआ बाण कभी समाप्त न हो - ऐसा तरकस भी उपलब्ध किया । तत्पश्चात् सीता और लक्ष्मणके साथ वे अगस्त्य - आश्रमसे आगे जाकर गोदावरीके निकट पञ्चवटीमें रहने लगे । वहाँ जानेपर कमललोचन श्रीरामचन्द्रजीके पास गृध्रराज जटायु आये और उनसे अपने कुलका परिचय देकर खड़े हो गये । उन्हें वहाँ उपस्थित देख श्रीरामने भी अपना सारा वृतान्त विशेषरुपसे जनाया और कहा - ' महामते ! तुम सीताकी रक्षा करते रहो ' ॥२६ - ३०॥
श्रीरामके यों कहनेपर जटायुने आदरपूर्वक उनका आलिङ्गन किया और कहा - ' श्रीराम ! जब कभी कार्यवश अपने भाई लक्ष्मणके साथ आप किसी दूसरे वनमें चले जायँ, उस समय मैं ही आपकी भार्याकी रक्षा करुँगा; अतः सुन्दर ! आप निश्चित होकर यहाँ रहिये ।' श्रीरामसे यों कहकर गृध्रराज पास ही दक्षिण भागमें स्थित अपने आश्रमपर चले आये, जो नाना पक्षियोंद्वारा सेवित था ॥३१ - ३२ १/२॥
एक बार यह सुनकर कि कामदेवके समान सुन्दर श्रीरामचन्द्रजी नाना प्रकारकी महत्त्वपूर्ण कथाएँ कहते हुए अपनी भार्या सीताके साथ पञ्चवटीमें निवास कर रहे हैं, रावणकी छोटी बहिन राक्षसी शूर्पणखा मन - ही - मन कामसे पीड़ित हो गयी और लावण्य आदि गुणोंसे युक्त मायामय सुन्दर रुप बनाकर, मधुर स्वरमें गीत गाती हुई धीरे - धीरे वहाँ आयी । उसने वनमें सीताजीके साथ बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजीको देखा । तब मायामय सुन्दर रुप धारण करनेवाली भयंकर राक्षसी दुष्टहदया शूर्पणखाने निडर होकर श्रीरामसे कहा - ' प्रियतम् ! मैं आपको चाहनेवाली सुन्दरी दासी हुँ । आप मुझ सेविकाको स्वीकार करें । जो पुरुष सेवामें उपस्थित हुई रमणीका त्याग करता है, उसे बड़ा दोष लगता है ' ॥३३ - ३७ १/२॥
शूर्पणखाके यों कहनेपर पृथ्वीपति श्रीरामचन्द्रजीने उससे कहा - ' बाले ! मेरे तो स्त्री है । तुम मेरे छोटे भाईके पास जाओ ।' उनकी राक्षसीने कहा - ' राघव ! मैं रति - कर्ममें बहुत निपुण हूँ और यह सीता अनभिज्ञ है; अतः इसे त्यागकर मुझ सुन्दरीको ही स्वीकार करें ' ॥३८ - ४०॥
उसकी यह बात सुनकर धर्मपरायण श्रीरामने कहा - ' मै परायी स्त्रीके साथ कोई सम्पर्क नहीं रखता । तुम यहाँसे लक्ष्मणके निकट जाओ । यहाँ वनमें उसकी स्त्री नहीं है; अतः शायद वह तुम्हेम स्वीकार कर लेगा ।' उनके यों कहनेपर शूर्पणखा पुनः कमलनयन श्रीरामसे बोली - ' अच्छा, आप एक ऐसा पत्र लिखकर दें, जिससे लक्ष्मण मेरा भर्ता ( भरण - पोषणका भार लेनेवाला ) हो सके ।' तब बुद्धिमान् कमलनयन महाराज श्रीरामने ' बहुत अच्छा ' कहकर एक पत्र लिखा और उसे दे दिया । उसमें लिखा था - ' लक्ष्मण ! तुम इसकी नाक काट लो; निस्संदेह ऐसा ही करना । यों ही न छोड़ना ' ॥४१ - ४४॥
शूर्पणखा वह पत्र लेकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे गयी । जाकर उसने महात्मा लक्ष्मणको उसी रुपमें वह पत्र दे दिया । उस कामरुपिणी राक्षसीको देखकर लक्ष्मणने उससे कहा - कलङ्किनी ! ठहर, मैं श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं कर सकता ।' यों कहकर बुद्धिमान् लक्ष्मणने उसे पकड़ लिया और एक चमचमाती हुई तलवार उठाकर तिलवृक्षके काण्ड ( पोखो ) - के समान उसकी नाक और कान काट लिये ॥४५ - ४७॥
नाक कट जानेपर वह बहुत दुःखी हो रोने तथा विलाप करने लगी - ' हा ! समस्त देवताओंका मानमर्दन करनेवाले मेरे भाई रावण ! आज मुझपर महान् कष्ट आ गया । हा भाई कुम्भकर्ण ! मुझपर बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी । हा गुणनिधे महामते विभीषण ! मुझे महान् दुःख देखना पड़ा ' ॥४८ - ४९॥
इस प्रकार आर्तभावसे रोदन करती हुई वह खर - दूषण और त्रिशिराके पास गयी तथा उनसे अपने अपमानकी बात निवेदन करके बोली ' महाबली श्रीराम इस समय जनस्थानमें अपने भाई लक्ष्मणके साथ रहते है ।' श्रीरामका पता पाकर वे तीनों बहुत ही कुपित हुए और उनके साथ युद्धके लिये उन्होंने चौदह हजार प्रतापी एवं बलवान् राक्षसोंको भेजा तथा वे तीनों निशाचर - नायक स्वयं भी उस सेनाके साथ आगे - आगे चले । उन महाबलवान् राक्षसोंको रावणने वहाँ पहलेसे ही नियुक्त कर रखा था । वे बहुत बड़ी सेनाके साथ जनस्थानमें आये । रावणकी बहिन शूर्पणखा नाक कट जानेसे बहुत रो रही थी । उसके सारे अङ्ग आँसुओंसे भीग गये थे । उसकी वह दुर्दशा देख वे खर - दूषण आदि राक्षस अत्यन्त कुपित हो उठे थे ॥५० - ५४॥
श्रीरामने भी बलवान् राक्षसोंकी उस सेनाको देख लक्ष्मणको सीताकी रक्षामें उसी स्थानमें रोक दिया और अपने साथ युद्धके लिये वहाँ भेजे गये उन बलाभिमानी राक्षसोंके साथ युद्ध आरम्भ कर दिया । अग्निकी ज्वालाके समान दीप्तिमान् बाणोंद्वारा उन्होंने चौदह हजार राक्षसोंकी प्रबल सेनाको क्षणभरमें मार गिराया । साथ ही खर और महाबली दूषणका भी वध किया । इसी प्रकार त्रिशिरको श्रीरामने अत्यन्त रोषपूर्वक रणक्षेत्रमें मार गिराया । इस तरह उन सभी दुष्ट राक्षसोंका वध करके श्रीरामचन्द्रजी अपने आश्रममें लौट आये ॥५५ - ५८॥
तब शूर्पणखा रोती हुई रावणके पास आयी । दुर्बुद्धि रावणने अपनी बहिनकी नाक कटी देख सीताको हर लानेके उद्देश्यसे मारीचसे कहा - ' मामा ! हम और तुम पुष्पक विमानसे चलकर जनस्थानके पास ठहरें । वहाँसे तुम मेरी आज्ञाके अनुसार सोनेके मृगका वेष धारणकर धीरे - धीरे मेरा कार्य सिद्ध करनेके लिये उस स्थानपर जाना, जहाँ सीता रहती है । मामा ! वह जब तुम्हें सुवर्णमय मृगशावकके रुपमें देखेगी, तब तुम्हें लेनेकी इच्छा करेगी और श्रीरामको तुम्हें बाँध लानेके लिये भेजेगी । जब सीताकी बात मानकर वे तुम्हें बाँधने चलें, तब तुम उनके सामनेसे बात मानकर वे तुम्हें बाँधने चलें, तब तुम उनके सामनेसे गहन वनमें भाग जाना । फिर लक्ष्मणको भी उधर ही खींचनेके लिये उच्चस्वरसे [ हा भाई लक्ष्मण ! इस प्रकार ] कातर वचन बोलना । तत्पश्चात् मैं भी मायामय वेष बनाकर, पुष्पक विमानपर आरुढ हो, उस असहाया सीताको हर लाऊँगा; क्योंकि मेरा मन उसमें आसक्त हो गया है । फिर भद्र ! तुम भी स्वेच्छानुसार चले आना ' ॥५९ - ६५॥
रावणके यों समझानेपर मारीचने कहा - ' अरे पापिष्ठ ! तुम्हीं जाओ, मैं वहाँ नहीं जाऊँगा । मैं तो विश्वामित्रमुनिके यज्ञमें पहले ही श्रीरामके हाथों भारी कष्ट उठा चुका हूँ ।' मारीचके यों कहनेपर रावण क्रोधसे मूर्च्छित हो उसे मार डालनेको उद्यत हो गया । तब मारीचने उससे कहा - ' वीर ! तुम्हारे हाथसे वध हो, इसकी अपेक्षा तो श्रीरामके हाथसे ही मरना अच्छा है । तुम मुझे जहाँ ले चलना चाहते हो, वहाँ अब मैं अवश्य चलूँगा ' ॥६६ - ६८ १/२॥
यह सुनकर वह पुष्पक विमानपर आरुढ हो उसके साथ जनस्थानके निकट आया । वहाँ पहुँचकर मारीच सुवर्णमय मृगका रुप धारणकर, जहाँ जनकनन्दिनी सीता विद्यमान थीं, वहाँ उनके सामने गया । उस सुवर्णमय मृगकिशोरको देखकर यशस्विनी सीता भावी कर्मके वशीभूत हो अपने पति भगवान् श्रीरामसे बोलीं - ' राजपुत्र ! आप उस सुवर्णमय मृगशावकको पकड़कर मेरे लिये ला दीजिये । यह अयोध्यामें मेरे महलके भीतर क्रीड़ा - विनोदके लिये रहेगा ' ॥६९ - ७२॥
सीताके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने उनकी रक्षाके लिये लक्ष्मणको वहाँ रख दिया और स्वयं उस मृगके पीछे चले । श्रीरामके पीछा करनेपर उस मृगशावकको बाणसे बींध डाला । मारीच ' हा ! लक्ष्मण ! ' - यों कहकर पर्वताकार शरीरसे पृथ्वीपर गिरा और प्राणहीन हो गया । रोते हुए मारीचके उस आर्तनादको सुनक सीताने लक्ष्मणसे कहा - ' वत्स लक्ष्मण ! जहाँसे यह आवाज आयी है, वहीं तुम भी जाओ । निश्चय ही तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राताके रोदनका शब्द कानोंमें आ रहा है, मुझे प्रायः महात्मा श्रीरामका जीवन संशयमें पड़ा दिखायी देता है ' ॥७३ - ७७॥
सीताकी यह बात सुनकर उन अनिन्दिता देवीसे लक्ष्मणने कहा - ' देवि ! श्रीरामके लिये कोई संदेहकी बात नहीं है, उन्हें कहीं भी भय नहीं है ।' यों कहते हुए लक्ष्मणसे उस समय विदेहकुमारी सीताने कुछ विरुद्ध वचन कहा, जो भवितव्यताकी प्रेरणासे उनके मुखसे सहसा निकल पड़ा था । वे बोलीं - ' मैं जानती हूँ, तुम श्रीरामके मर जानेपर मुझे अपनी बनाना चाहते हो; इसीसे इस समय वहाँ नहीं जा रहे हो ।' सीताके यों कहनेपर विनयशील राजकुमार लक्ष्मण उस अप्रिय वचनको न सह सके और तत्काल ही श्रीरामचन्द्रजीकी खोजमें चल पड़े ॥७८ - ८० १/२॥
इसी समय दुरात्मा रावण भी संन्यासीका वेष बनाकर सीताके पास आया और यों बोला - ' देवि ! अयोध्यासे महाबुद्धिमान् भरतजी आये हैं । वे श्रीरामचन्द्रजीके साथ बातचीत करके वहीं काननमें ठहरे हुए हैं । श्रीरामचन्द्रजीने मुझे तुम्हें बुलानेके लिये यहां भेजा है । तुम इस विमानपर चढ़ चलो । भरतजीने मनाकर श्रीरामको अयोध्या चलनेके लिये राजी कर लिया है, अतः वे अयोध्या चलनेके लिये राजी कर लिया है, अतः वे अयोध्या जा रहे हैं । वैदेहि ! तुम्हारी क्रीडा - विनोदके लिये उन्होंने उस मृग - शावकको भी पकड़ लिया है । अहो ! तुमने इस विशाल वनमें बहुत दिनोंतक ऐसा महान् कष्ट उठाया है । अब तुम्हारे स्वामी सुन्दर मुखवाले श्रीरामचन्द्रजी तथा उनके विनयशील भाई लक्ष्मण भी राज्यग्रहण कर चुके हैं । अतः तुम उनके पास चलनेके लिये इस विमानपर चढ़ जाओ ' ॥८१ - ८५ १/२॥
उसके यों कहनेपर उसकी कपटपूर्ण बातोंसे प्रेरित हो सती वह सब सत्य मानकर उस तथाकथित महात्माके साथ विमानके निकट गयीं और उसपर आरुढ हो गयीं । तब वह विमान शीघ्रतापूर्वक दक्षिण दिशाज्की ओर चल पड़ा । यह देख सीता अत्यन्त शोकसे पीड़ित हो, अत्यन्त दुःखसे विलाप करने लगीं । यद्यपि सीता आकाशमें उसके अपने ही विमानपर बैठी थीं, तथापि रावणने वहाँ रोती हुई सीताका स्पर्श नहीं किया । अब रावण अपने असली रुपमें आ गया । उसका शरीर बहुत बड़ा हो गया । दस मस्तकवाले उस विशालकाय राक्षसपर दृष्टि पड़ते ही सीता अत्यन्त दुःखमें डूब गयीं और विलाप करने लगीं - ' हाय राम ! किसी कपटवेषधारी भयानक राक्षसने आज मुझे धोखा दिया है, मैं भयसे पीड़ित हो रही हूँ; मुझे बचाओ । हे महाबाहु लक्ष्मण ! मुझे दुष्ट राक्षस हरकर लिये जा रहा है । मैं भयसे व्याकुल हूँ, तुम जल्दी आकर मुझ असहायाकी रक्षा करो ' ॥८६ - ९१॥
इस प्रकार उच्चस्वरसे विलाप करती हुई सीताके उस महान् आर्तनादको सुनकर गृध्रराज जटायु वहाँ आ पहुँचे ( और बोले - ) ' अरे दुष्टात्मा रावण ! ठहर जा; तू सीताको छोड़ दे, छोड़ दे ।' यह कहकर पराक्रमी जटायु उसके साथ युद्ध करने लगे । उन्होंने अपने दोनों पंखोंसे रावणकी छातीमें चोट की । उनको इस प्रकार प्रहार करते देख रावणने समझ लिया कि ' यह पक्षी बड़ा बलवान् है ।' जब जटायुके मुख और चोंचकी मारसे वह बहुत पीड़ित हो गया, तब उस दुष्टने बड़े वेगसे ' चन्द्रहास ' नामक विशाल खङ्ग उठाया और उससे धर्मात्मा जटायुपर घातक प्रहार किया । इससे उनकी चेतना क्षीण हो गयी और वे पृथ्वीपर गिर पड़े ॥९२ - ९६॥
उस समय उन्होंने रावणसे कहा - ' अरे दुष्टात्मन् ! ओ नीच राक्षस ! मुझे तूने नहीं मारा है । मैं तो तेरे ' चन्द्रहास ' नामक खङ्गके प्रभावसे मारा गया हूँ । अरे मूर्ख ! तेरे सिवा दूसरा कौन शस्त्रधारी योद्धा होगा, जो किसी निहत्थेपर हथियार चलायेगा ? अरे दुष्ट राक्षस ! तू यह जान ले कि सीताका हर ले जाना तेरी मौत है । दुष्टात्मा रावण ! निस्संदेह श्रीरामचन्द्रजी तेरा वध कर डालेंगे ' ॥९७ - ९८ १/२॥
जटायुके मारे जानेसे अत्यन्त दुःख और शोकसे पीड़ित हुई मिथिलेशकुमारी सीता उनसे रोकर बोलीं - ' हे पक्षिराज ! तुमने मेरे लिये मृत्युका वरण किया है, इसलिये तुम श्रीरामचन्द्रजीके कृपासे विष्णुलोकको प्राप्त होओगे । खगश्रेष्ठ ! जबतक श्रीरामचन्द्रजीसे तुम्हारी भेंट न हो, तबतक तुम्हारे प्राण शरीरमें ही रहें ।' उन पक्षिराजसे यों कहकर अत्यन्त दुःखिनी सीताने अपने शरीरसे धारण किये हुए समस्त आभूषणोंको उतार और शीघ्रतापूर्वक वस्त्रमें बाँधकर कहा - ' तुम सब - के - सब श्रीरामके हाथमें पहुँच जाओगे ।' और तब उन्हें भूमिपर गिरा दिया ॥९९ - १०२ १/२॥
इस प्रकार सीताको हटकर तथा जटायुको धराशायी करके वह दुष्ट निशाचर पुष्पक विमानद्वारा शीघ्र ही लङ्कामें जा पहुँचा । वहाँ मिथिलेशकुमारी सीताको अशोक - वाटिकामें रखकर राक्षसियोंसे बोला - ' भयंकर मुखवाली निशाचारियो ! तुम लोग यहीं सीताकी रखवाली करो ।' यह आदेश दे वह राक्षसराज रावण अपने भवनमें चला गया । उस समय लङ्कनिवासी एकान्तमें परस्पर मिलकर बातें करने लगे - ' दुरात्मा रावणने इस नगरीका विनाश करनेके लिये ही सीताको यहाँ ला रखा है ' ॥१०३ - १०६
विकट आकारवाली राक्षसियोंद्वारा सब ओरसे सुरक्षित हुई सीता वहाँ दुःखमग्न हो केवल श्रीरामचन्द्रजीका ही चिन्तन करती हुई रहने लगीं । वे सदा अत्यन्त शोकार्त्त हो बड़े दुःखके साथ बहुत रोदन किया करती थीं । रावणके वशमें पड़ी हुई सीता ज्ञानको अपनेतक ही सीमित रखनेवाले कृपणके अधीन हुई हंसवाहिनी सरस्वतीके समान वहाँ शोभा नहीं पाती थी ॥१०७ - १०८॥
सीताने वस्त्रमें बँधे हुए अपने जिन आभूषणोंको नीचे गिरा दिया था, उन्हें अकस्मात् घूमनेके लिये आये हुए चार वानरोंने, जो वानरराज सुग्रीवके सेवक थे, पाया और शीघ्रतापूर्वक ले जाकर अपने स्वामी महात्मा सुग्रीवको अर्पित करके यह समाचार भी सुनाया कि ' आज वनके भीतर जटायु और रावणमें बड़ा भारी युद्ध हुआ था ।' इधर, जब श्रीरामचन्द्रजी मायामय वेष बनाकर आये हुए उस मारीचको मारकर लौट पड़े, तब मार्गमें लक्ष्मणको देखकर उनके साथ अपने आश्रमपर आये; किंतु वहाँ सीताको न देखकर वे दुःखसे व्यथित हो फूट - फूटकर रोने लगे । महातेजस्वी लक्ष्मण भी अत्यन्त दुःखी होकर रोदन करने लगे । उस समय श्रीरामचन्द्रजीको सर्वथा अस्वस्थ होकर रोते और पृथ्वीपर गिरा देख बुद्धिमान् लक्ष्मणने उन्हें उठाकर धीरज बँधाया ॥१०९ - ११३॥
राजन् ! उस समय लक्ष्मणने उनसे जो समयोचित बात कही थी, वह तुम मुझसे सुनो । ( लक्ष्मण बले - ) ' महाराज ! आप अधिक शोक न करें । प्रभो ! अब सीताकी खोज करनेके लिये आप शीघ्रतापूर्वक उठिये, उठिये ।' इत्यादि बातें कहते हुए दुःखी महात्मा लक्ष्मणने अपने शोकग्रस्त भाई राजा रामचन्द्रजीको उठाया और उनके साथ स्वयं सीताकी खोज करनेके लिये वनमें चले ॥११४ - ११६॥
उस समय श्रीरामचन्द्रजीने सारे वनोंको छान डाला, समस्त पर्वतों तथा उनकी चोटियोंपर जानेवाले मार्गोंका भी निरीक्षण कर लिया । इसी प्रकार उन्होंने मुनियोंके बहुत - से आश्रम भी देखे; तृण एवं लताओंसे आच्छादित वनस्थलियों तथा खुले मैदानोंमें, नदीके किनारे, गङ्कोंमें और कन्दराओंमें देखनेपर भी जब उन महानुभावको अपनी प्रिया सीताका पता नहीं लगा, तब वे बहुत दुःखी हुए । उसी समय राजा रामचन्द्रजीने रावणद्वारा मारे गये जटायुको देखा और कहा - ' अहो ! आपको किसने मारा ? आह ! आप ऐसी दुर्दशा को पहुँच चुके है ? पता नहीं, जीवित हैं तथा मर गये । पत्नीके वियोगवश आपके समान ही दुःखी होकर यहाँ आये हुए मुझ रामके लिये आजकल आप ही सब कुछ थे ' ॥११७ - ११९॥
भगवान् रामके इतना कहते ही वह पक्षी उस समय बड़े कष्टसे मधुर वाणीमें बोला - ' राजन् ! इस समय मैंने जो कुछ देखा है और तत्कल ही उसके लिये जो कुछ किया है, वह मेरा सारा वृत्तात आप सुनें । दशमुख रावणने मायासे सीताका अपहरण करके उसे उत्तम विमानपर चढ़ा लिया और चल दिया । उस समय माता सीता बड़े दुःखके साथ विलाप कर रही थीं । रघुनन्दन ! सीताकी आवाज सुनकर मैंने उन्हें अपने ही बलसे छुड़ानेके लिये रावणके साथ महान् युद्ध छेड़ दिया । फिर उस राक्षसने अपनी तलवारके बलसे मुझे मार डाला । विदेहकुमारी सीताके ही आशीर्वादसे मैं अभीतक जीवित था, अब यहाँसे स्वर्गलोकको जाऊँगा । पृथ्वीपालक राम ! आप शोक कीजिये, अब तो उस दुष्ट राक्षसको उसके गणोंसहित मार ही डालिये ' ॥१२० - १२३॥
जटायुके यों कहनेपर श्रीरामने पुनः शोकपूर्वक उनसे कहा - ' पक्षिराज ! आपका कल्याण हो और आपको उत्तम गति मिले ।' तदनन्तर जटायु अपना शरीर त्यागकर एक सुन्दर विमानपर आरुढ़ हुए और अप्सरागणोंसे सेवित हो स्वर्गलोकको चले गये । श्रीरामचन्द्रजीने भी उनके शरीरका दाह - संस्कार करके स्नानके पश्चात् उनके निमित्त जलाञ्जलि दी । फिर सीताके लिये दुःखी हो भाई लक्ष्मणके साथ आगे जाने लगे । इतनेमें ही उन्हें रास्तेपर एक राक्षसी खड़ी दिखायी दी । वह मुँहसे बड़ी भारी उल्काके समान आगकी ज्वाला उगल रही थी । उसका मुँह फैला हुआ था । वह बड़ी डरावनी थी और पास आये हुए अनेकानेक जीवोंका संहार कर रही थी । श्रीरामने उसे रोषपूर्वक मार गिराया । फिर वे आगे बढ़ गये । जब श्रीराम दूसरे वनमें जाने लगे, तब उन्होंने कबन्धको देखा, जो बहुत ही कुरुप था । उसका मुख उसके पेटमें ही था, बाँहे बड़ी - बड़ी थीं और स्तन घने थे । श्रीरामने उसे अपना मार्ग रोकते देख उसे काठ - कबाड़द्वारा धीरे - धीरे जला दिया । जल जानेपर वह दिव्यरुप धारण करके प्रकट हुआ और आकाशमें स्थित होकर श्रीरामसे बोला - ॥१२४ - १२९॥
' महाबाहु श्रीराम् ! महामते वीरवर ! एक मुनिके शापवश चिरकालसे प्राप्त हुई मेरी कुरुपताको आपने नष्ट कर दिया; अब मैं स्वर्गलोकको जा रहा हूँ । इसमें संदेह नहीं कि आ ज मैं आपकी कृपासे धन्य हो गया । रघुनन्दन ! आप सीताकी प्राप्तिके लिये सूर्यकुमार वानरराज सुग्रीवके साथ मित्रता कीजिये । उनके यहाँ जाकर सुग्रीवसे सारा वृतान्त निवेदन कर देनेपर आपका कार्य सिद्ध हो जायगा । अतः नृपश्रेष्ठ ! आप यहाँसे ऋष्यमूक पर्वतपर जाइये ' ॥१३० - १३२॥
यह कहकर कबन्ध स्वर्गको चला गया । कहते हैं, तब लक्ष्मणके साथ श्रीरामचन्द्रजीने एक ऐसे आश्रममें प्रवेश किया, जो सिद्धों और मुनियोंसे शून्य था । उसमें उन्होंने एक ' शबरी ' नामकी तपस्विनी देखी, जो बड़े - बड़े मुनियोंकी सेवा - पूजा करनेसे निष्पाप हो गयी थी । उसके साथ वार्तालाप करके वे वहाँ ठहर गये । शबरीने बेर आदि फलोंके द्वारा भगवान् रामका भलीभाँति सत्कार किया । आवभगतके पश्चात् उनसे अपनी अवस्था निवेदन की और यह कहकर कि ' आप सीताको प्राप्त कर लेंगे ' वह शबरी भी उनके सामने ही अग्निमें प्रवेश करके स्वर्गको चली गयी । उसे भी स्वर्गलोकमें पहुँचाकर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अन्यत्र चले गये ॥१३३ - १३६॥
तदनन्तर विनयशील और गुणी भाई लक्ष्मणके साथ जगदीश्वर भगवान् राम प्रियाके वियोगसे अत्यन्त दुःखी हो वहाँसे दक्षिणकी ओर चल दिये ॥१३७॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' श्रीरामावतारविषयक ' उन्वासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४९॥