मार्कण्डेयजी बोले - राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे भगवान् विष्णुके वराह - अवतारका वर्णन किया । अब ' नृसिंहावतार ' का वर्णन करुँगा; सुनो ॥१॥
पूर्वकालमें दितिका पुत्र हिरण्यकशिपु महान् प्रतापी हुआ । उसने अनेक सहस्त्र वर्षोंतक निराहार रहते हुए तपस्या की । उसकी तपस्यासे संतुष्ट हो ब्रह्माजीने उस दानवसे कहा - ' दैत्येन्द्र ! तुम्हारे मनको जो प्रिय लगे, वही वर माँग लो । ' दैत्य हिरण्यकशिपुने ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर उन देवेश्वरसे विनयपूर्वक प्रणाम करके कहा ॥२ - ४॥
हिरण्यकशिपु बोला - ब्रह्मन् ! भगवन् ! यदि आप मुझे वर देनेको उद्यत हैं तो मैं जो - जो माँगता हूँ, वह सब देनेकी कृपा करें । मैं न सुखी वस्तुसे मरुँ न गीलीसे; न जलसे न आगसे; न काठसे न कीड़ेसे और न पत्थर या हवासे ही मेरी मृत्यु हो । न शूल अथवा किसी और शस्त्रसे न पर्वतसे; न मनुष्योंसे न देवता, असुर, गन्धर्व अथवा राक्षसोंसे ही मरुँ । न किंनरोंसे न यक्ष, विद्याधर अथवा भुजंगोंसे; न वानत तथा अन्य पशुओंसे और न दुर्गा आदि मातृगणोंसे ही मेरी मृत्यु हो । मैं न घरके भीतर मरुँ न बाहर; न दिनमें मरुँ न रातमें तथा आपकी कृपासे मृत्युके हेतुभूत अन्य कारणोंसे भी मेरी मृत्यु न हो । देवदेवेश्वर ! मैं आपसे यही वर माँगता हूँ ॥५ - ९१/२॥
मार्कण्डेयजी कहते हैं - राजन् ! दैत्यराज हिरण्यकशिपुके यों कहनेपर ब्रह्माजीने उससे कहा - ' दैत्येन्द्र ! तुम्हारे महान् तपसे संतुष्ट होकर मैं इन परम अद्भुत वरोंको दुर्लभ होनेपर भी तुम्हें दे रहा हूँ । दुसरे किसीको मैंने ऐसा वर नहीं दिया है और न दूसरोंने ऐसी तपस्या ही की है । दैत्यपते ! तुम्हारे माँगे हुए सभी वर मैंने तुम्हें दे दिये; वे सब तुम्हें प्राप्त हों । महाबाहो ! अब जाओ और अपने तपके बढ़े हुए उत्कृष्ट फलको भोगो । ' इस प्रकार पूर्वकालमें दैत्यराज हिरण्यकशिपुको अभीष्ट वर देकर ब्रह्माजी अपने परम उत्तम लोकको चले गये । उस बलवान् दैत्यने भी वर पाकर बलसे उन्मत्त हो श्रेष्ठ देवताओंको युद्धमें जीतकर उन्हें स्वर्गसे पृथ्वीपर गिरा दिया तथा वह स्वयं स्वर्गलोकमें रहकर वहाँका सर्वशक्तिसम्पन्न राज्य भोगने लगा ॥१० - १५॥
नरेश्वर ! इन्द्रादि देवता, रुद्र तथा ऋषिगण भी उसके भयसे मनुष्यरुप धारणकर पृथ्वीपर विचरते थे । राजेन्द्र ! त्रिभुवनका राज्य प्राप्त कर लेनेपर हिरण्यकशिपुने समस्त प्रजाओंको बुलाकर उनसे यह वाक्य कहा - ' प्रजागण ! तुम लोग देवताओंके लिये यज्ञ, होम और दान न करो । अब मैं ही त्रिभुवनका अधीश्वर हूँ; अतः यज्ञ और दानादि कर्मोंद्वारा मेरी ही पूजा करो ।' राजन् ! यह और दानादि कर्मोंद्वारा मेरी ही पूजा करो ।' राजन् ! यह सुनकर वे सभी प्रजाएँ उसके भयसे वैसा ही करने लगीं । नृपश्रेष्ठ ! वहाँ ऐसा व्यवहार चालू होनेपर चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिभुवन अधर्मपरायण हो गया । स्वधर्मका लोप हो जानेसे सबकी बुद्धि पापमें प्रवृत्त हो गयी । इस तरह बहुत समय बीतनेपर इन्द्रसहित सब देवताओंने मिलकर समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता तथा नीतिवेत्ता बृहस्पतिजीसे विनयपूर्वक पूछा - ' मुनिश्रेष्ठ ! त्रिलोकीका राज्य छीननेवाले इस हिरण्यकशिपुके विनाशका समय और उसका उपाय हमें शीघ्र बताइये ' ॥१६ - २२१/२॥
बृहस्पतिजी बोले - देवताओं ! तुम लोग अपने स्थानकी प्राप्तिके लिये मेरे ये वाक्य सुनो - ' इस महान् असुर हिरण्यकशिपुके पुण्यका अंश प्रायः क्षीण हो चुका है [ इसे अपने भाई हिरण्याक्षकी मृत्युसे बहुत शोक हुआ है । ] यह शोक बुद्धिको नष्ट और शास्त्रज्ञानको चौपट कर देता है, विचारशक्तिको भी क्षीण कर डालता है; अतः शोकके समान कोई शत्रु नहीं है । नरेश्वर ! अपने शरीरपर अग्निका स्पर्श और दारुण शस्त्र - प्रहार भी सहा जा सकता है, परंतु शोकजन्य दुःखका सहन नहीं किया जा सकता । देवताओं ! इस शोकसे और कालरुप निमित्तसे हम हिरण्यकशिपुका नाश निकट देख रहे हैं । इसके अतिरिक्त सभी विद्वान् सर्वत्र परस्पर यही कहा करते हैं कि दुष्ट हिरण्यकशिपु अब शीघ्र ही नष्ट होनेवाला है । मेरे शकुन भी यही बताते हैं कि देवताओंको अपने पद - स्वर्ग - साम्राज्यकी प्राप्तिरुप महती समृद्धि मिलनेवाली है और हिरण्यकशिपुका नाश होना चाहता है । चूँकि ऐसा ही होनेवाला है, इसलिये तुम सभी देवता क्षीरसागरके उत्तरतटपर, जहाँ भगवान् विष्णु शयन करते हैं, शीघ्र ही जाओ । तुम लोगोंके भलीभाँति स्तवन करनेपर वे भगवान् क्षणभरमें ही प्रसन्न हो जायँगे और प्रसन्न होनेपर वे ही उस दैत्यके वधका उपाय बतायेंगे ॥२३ - ३०॥
श्रीबृहस्पतिजीके इस प्रकार कहनेपर सभी देवता कहने लगे - ' भगवन् ! आपने बहुत अच्छा कहा, बहुत अच्छा कहा ।' और वे अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वहाँ जानेका उद्योग करने लगे । नृपवर ! वे देवगण किसी पुण्यतिथिको शुभ लग्नमें मुनिवरोंद्वारा पुण्याहवाचन, स्वस्तिवाचन और मङ्गलपाठ कराकर दुष्ट दैत्य ( हिरण्यकशिपु ) - के विनाश और अपनी ऐश्वर्य - वृद्धिके लिये महादेवजीको आगे करके क्षीरसागरके उत्तर तटकी ओर प्रस्थित हुए । वहाँ पहुँचकर सभी देवता विजयशील जनार्दन भगवान् विष्णुका नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा स्तवन - पूजन करते हुए वहाँ खड़े रहे । भगवान् शङ्कर भी भक्तिपूर्वक एकाग्रचित्तसे भगवान् जनार्दनके पवित्र नामोंद्वारा उनकी स्तुति करने लगे ॥३१ - ३५॥
श्रीमहादेवजी बोले - विष्णु, जिष्णु, विभु, देव, यज्ञेश, यज्ञपालक, प्रभविष्णु, ग्रसिष्णु, लोकात्मा, लोकपालक, केशव, केशिहा, कल्प, सर्वकारणकारण, कर्मकृत्, वामनाधीश, वासुदेव, पुरुष्टुत, आदिकर्ता, वराह, माधव, मधुसूदन, नारायण, नर, हंस, विष्णुसेन, हुताशन, ज्योतिष्मान्, द्युतिमान् , श्रीमान् , आयुष्मान् , पुरुषोत्तम, वैकुण्ठ, पुण्डरीकाक्ष, कृष्ण, सूर्य, सुरार्चित, नरसिंह, महाभीम, वज्रदंष्ट, नखायुध, आदिदेव, जगत्कर्ता, योगेश, गरुडध्वज, गोविन्द, गोपति, गोप्ता, भूपति, भुवनेश्वर, पद्मनाभ, हषीकेश, विभु, दामोदर, हरि, त्रिविक्रम, त्रिलोकेश, ब्रह्मेश, प्रीतिवर्धन, वामन, दुष्टदमन, गोविन्द, गोपवल्लभ, भक्तिप्रिय, अच्युत, सत्य, सत्यकीर्ति, ध्रुव, शुचि, कारुण्य, करुण, व्यास, पापहा, शान्तिवर्धन, संन्यासी, शास्त्रतत्त्वज्ञ, मन्दारगिरिकेतन, बदरीनिलय, शान्त, तपस्वी, वैद्युतप्रभ, भूतावास, गुहावास, श्रीनिवास, श्रियः पति, तपोवास, दम, वास, सत्यवास, सनातन पुरुष, पुष्कल, पुण्य, पुष्कराक्ष, महेश्वर, पूर्ण, पूर्ति, पुराणज्ञ, पुण्यज्ञ, पुण्यवर्द्धन, शङ्खी, चक्री, गदी, शाङ्गी, लाङ्गली, मुशली, हली, किरीटी, कुण्डली, हारी, मेखली, कवची, ध्वजी, जिष्णु, जेता, महावीर, शत्रुघ्न, शत्रुतापन, शान्त, शान्तिकर, शास्ता, शंकर, शंतनुस्तुत, सारथि, सात्त्विक, स्वामी, सामवेदप्रिय, सम, सावन, साहसी, सत्त्व, सम्पूर्णांश, समृद्धिमान्, स्वर्गद, कामद, श्रीद, कीर्तिद, कीर्तिनाशन, मोक्षद, पुण्डरीकाक्ष, क्षीराब्धिकृतकेतन, सुरासुरैः स्तुत, प्रेरक और पापनाशन आदि नामोंसे कहे जानेवाले परमेश्वर ! आप ही यज्ञ, वषटकार, ॐकार तथा आहवनीयादि अग्निरुप हैं । पुरुषोत्तम ! देव ! आप ही स्वाहा, स्वधा और सुधा है, आप सनातन देवदेव भगवान् विष्णुको नमस्कार है । गरुडध्वज ! आप प्रमाणोंके अविषय तथा अनन्त हैं ॥३६ - ५२१/२॥
मार्कण्डेयजी बोले - इन दिव्य नामोंद्वारा स्तुति किये जानेपर भगवान् मधुसूदनने प्रत्यक्ष प्रकट होकर सम्पूर्ण देवताओंसे यह वचन कहा ॥५३१/२॥
श्रीभगवान् बोले - देवगण ! तुम लोगोंने केवल कल्याणकारी नामोंद्वार मेरा स्तवन किया है, अतः मैं तुमपर प्रसन्न हूँ; कहो, तुम्हारा क्या कार्य सिद्ध करुँ ? ॥५४१/२॥
देवता बोले - हे देवदेव ! हे हषीकेश ! हे कमलनयन ! हे लक्ष्मीपते ! हे हरे ! आप तो सब कुछ जानते हैं; फिर हमसे क्यों पूछ रहे हैं ? ॥५५१/२॥
श्रीभगवान् बोले - असुरनाशक देवताओ ! तुम लोगोंके आनेका सारा कारण मुझे ज्ञात है । जगतका कल्याण करनेवाले महादेवजीने तथा तुमने हिरण्यकशिपु दैत्यका नाश करानेके लिये मेरे एक सौ पुण्यनामोंद्वारा मेरा स्तवन किया है । महामते शिव ! तुम्हारे कहे हुए इन सौ नामोंसे जो मेरा नित्य स्तवन करेगा, उस पुरुषद्वारा मैं उसी प्रकार प्रतिदिन पूजित होऊँगा, जैसे इस समय तुम्हारे द्वारा हुआ हूँ । देव शम्भो ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, अब तुम अपने शुभ कैलासशिखरको जाओ । तुमने मेरी स्तुति की है, अतः तुम्हारी प्रसन्नताके लिये मैं जाओ और कुछ कालतक प्रतीक्षा करो । जब इस हिरण्यकशिपुके प्रह्लाद नामक बुद्धिमान् विष्णुभक्त पुत्र होगा और जिस समय यह दैत्य प्रह्लादसे द्रोह करेगा, उस समय वरोंसे रक्षित होकर देवताओं और दानवोंसे भी नहीं जीते जा सकनेवाले इस असुरका मैं अवश्य वध कर डालूँगा । राजन् ! भगवान् विष्णुके इस प्रकार कहनेपर देवगण उन्हें प्रणाम करके चले गये ॥५६ - ६१॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' विष्णुका नाममय स्तोत्र ' नामक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४०॥