निमि (विदेह) n. अयोध्यापति इक्ष्वाकु राजा का बारहवॉं पुत्र, एवं ‘विदेह’ देश तथा राजवंश का पहला राजा
[वा.रा.उ.५५] ;
[म.स.८.९] । यह एवं इसका पुरोहित वसिष्ट के दरम्यान हुए झगडे में, इन दोनों ने परस्पर को विदेह (देहरहित) बनने का शाप दिया था । उस वेदहत्व की अवस्था के कारण, इसे एवं इसके राजवंश को ‘विदेह’ नाम प्राप्त हुआ
[मत्स्य.६१.३२-३६] ;
[पद्म. पा.२२,२४-३७] ;
[वायु. ८९.४] । इसके नाम के लिये, ‘नेमि’ पाठभेद भी उपलब्ध है । इसका पिता इक्ष्वाकु मध्यदेह्स (आधुनिक उत्तर प्रदेश ) का राजा था । इक्ष्वाकु के पुत्रों में विकुक्षि शशाद एवं निमि, ये दो प्रमुख थे । उनमें से विकुक्षि इक्ष्वाकु के पश्चात् अयोध्या का राजा बना, एवं उसने सुविख्यात इक्ष्वाकुवंश की स्थापना की । निमि को विदेह का राज्य मिला, एवं इसने विदेह राजवंश की स्थापना की । गौतम ऋषि के आश्रम के पास, निमि ने इंद्र के अमरावती के समान सुंदर एवं समृद्ध नगरी की स्थापना की थी । उस नगरी का नाम ‘वैजंयत’ या ‘जयंत’ था । यह नगरी दक्षिण दंडकारण्य प्रदेश में थी, एवं रामायण काल में, वहॉं तिमिध्वज नामक राजा राज्य करता था
[वा.रा.अयो.९.१२] । ‘जयंत’ नगरी निश्चितरुप में कहॉं बसी थी, यह कहना मुशिक्ल है । डॉ. भांडारकर के मत में, आधुनिक विजयदुर्ग ही प्राचीन जयंतनगरी होगी । श्री. नंदलाल दे के मत में आधुनिक वनवासी शहर की जगह जयंतनगरी बसी हुयी थी । निमि की राजधानी ‘मिथिला’ नामक नगरी में थी । उस नगरी का मिथिला नाम, इसके पुत्र ‘मिथि जनक’ के नाम से दिया गया था
[वायु.८९.१-२] ;
[ब्रह्मांड.३.६४.१-२] । एक बार, निमि ने सहस्त्र वर्षो तक चलनेवाले एक महान यज्ञ का आयोजन किया । उस यज्ञ का ‘होता’ (प्रमुख आचार्य) बनने के लिये इसने बडे सम्मान से अपने कुलगुरु वसिष्ठ को निमंत्रण दिया । उस समय वसिष्ठ और कोई यज्ञ में व्यस्त था । उसने इससे कहा, ‘पॉंचसों वर्षो तक चलनेवाले एक यज्ञ के कार्य में, मैं अभी व्यक्त हूँ । इसलिये वह यज्ञ समाप्त होने तक तुम ठहर जाओं । उस यज्ञ समाप्त होते ही, मैं तुम्हारे यज्ञ का ऋत्विज बन जाऊँगा । वसिष्ठ के इस कहने पर, निमि चुपचाप बैठ गया । उस मौनता से वसिष्ठ की कल्पना हुयी कि, यज्ञ पॉंचसौ वर्षो तक रुकाने की अपनी सूचना निमि ने मान्य की है । इस कारण, वह इंद्र का यज्ञ करने चला गया । इंद्र का यज्ञ समाप्त करने के बाद, वसिष्ठ निमि के घर वापस आया । वहॉं उसने देखा कि, राजा ने उसके कहने को न मान कर, पहले ही यज्ञ शुरु कर दिया है, एवं गौतम ऋषि को मुख्य ऋत्विज बनाया है । फिर क्रुद्ध हो कर वसिष्ठ ने पर्यक पर सोये हुये निमि को शाप दिया, ‘अपने देह से तुम्हारा वियोग हो कर, तुम विदेह बनोगे’। जागते ही इसे वसिष्ठ के शाप का वृत्तांत विदित हुआ । फिर निद्रित अवस्था में शाप देनेवाले दुष्ट वसिष्ठ गुरु से यह संतप्त हुआ, एवं इसने भी उसे वही शाप दिया
[विष्णु.४.५.१-५] ;
[भा.९.१३.१-६] ;
[वा.रा.उ.५५-५७] । पद्म पुराण में ‘वसिष्ठशाप’ की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है । अपने स्त्रियों के साथ, निमि द्यूत खेल रहा था । इतने में वसिष्ठ ऋषि यकायक वहॉं आ गया । द्यूत-क्रीडा में निमग्न रहने के कारण, निमि ने उसे उत्थापन आदि नही दिया । उस अपमान के कारण वसिष्ठ ने इसे ‘विदेह’ बनने का शाप दिया
[पद्म.पा.५.२२] । वसिष्ठ के शाप के कारण, निमि का शरीर अचेतन हो कर गिर पडा, एवं इसके प्राण इधर-उधर भटकने लगे । इसका अचेतन शरीर सुगंधि तैलादि के उपयोग से स्वच्छ एवं ताजा रख दिया गया । निमि का यज्ञ समाप्त होने पर, यज्ञ के हविर्भाग को स्वीकार करने देवतागण उपस्थित हुये । फिर उन्होंने निमि से कुछ आशीर्वाद मॉंगने के लिये कहा । निमि ने कहा, ‘शरीर एवं प्राण के वियोग के समान दुःखदायी घटना दुनिया हर व्यक्ति की ऑंखो में मेरी स्थापना हो जाये, जिससे मानवी शरीर से मैं कभी भी जुदा न हो सकूँ’। निमि की इस प्रार्थना के अनुसार, देवों ने मानवी ऑखों में इसे जगह दिलवायी । ऑंखों में स्थित निमि के कारण, उस दिन से मानवों की ऑंखे झपाने लगी, एवं ऑंख झपाने की उस क्रिया को ‘निमिष’ कहने लगे
[विष्णुधर्म.१.११७] । मत्स्य एवं पद्मपुराण के मत में, ‘विदेह अवस्था’ के शाप से मुक्ति पाने के लिये, निमि एवं वसिष्ठ ब्रह्माजी के पास गये । ब्रह्माजी ने वर प्रदान कर, निमि को मानवों के ऑंखों में रहने के लिये कहा, एवं वसिष्ठ को मित्र एवं वरुण के अंश से जन्म लेने के लिये कह दिया
[मत्स्य.२०१.१७-२२] ;
[पद्म. पा.२२.३७-४०] । मृत्यु के समय निमि निसंतान था; और भावी युवराज के न होने के कारण, अराजकता फैलने का धोखा था । निमि के अचेतन शरीर से पुत्र निर्माण करने के हेतु, उसे य्ञ की ‘अरुणी’ बनायी गयी । उस ‘अरणी’ का मंथन करने के एबाद, उससे एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ । वह ‘अरणी’ में मंथन से निकला, इसलिये उसे ‘मिथि’ कहने लगे
[वायु.८०] । माता के बिना, केवल पिता से ही उसका जन्म हुआ, इस कारण उसे ‘जनक’ की उपाधि प्राप्त हुयी । ‘विदेह’ पिता का पुत्र होने के कारण, मिथि जनक को ‘वैदेह’ नामांतर भी प्राप्त
[वा.रा.उ.५७] । मृत्यु के पश्चात् निमि यमसभा में प्रविष्ट हुआ, एवं सूर्यपुत्र यम की उपासना करने लगा
[म.स.८.९] ।
निमि (विदेह) II. n. विदर्भ देश का राजा । इसने अगस्त्य ऋषि को अपनी कन्या एवं राज्य अर्पित किया था । उस पुण्य के कारण, इसे स्वर्गलोक प्राप्त हुआ
[म.अनु.१३७.११] ।
निमि (विदेह) III. n. अत्रि कुल में उत्पन्न एक ऋषि । यह दत्त आत्रेय का पुत्र था
[म.अनु.९१.५] । इसने श्रीमान् नामक अपने मृतपुत्र को पिंडदान किया, एवं इस तरह मृतों के लिये ‘श्राद्ध’ करने का संस्कार सर्व प्रथम आरंभ किया
[म.अनु.९१.१४-१५] । इसके द्वारा स्मरण करने पर, इसके पितामह अत्रि ऋषि ने इसे दर्शन दिया था, एं इससे संभाषण किया था
[म.अनु.९१.१८] ।
निमि (विदेह) IV. n. एक यादव राज । विष्णु,वायु,एवं मत्स्यमत में, यह अंधक राजा का बंधु सात्वत भजमान का पुत्र था । भागवत में इसे ‘निम्लोचि’ कहा गया है
[भा.९.२४.६-८] ।
निमि (विदेह) V. n. (सो. कुरु.भविष्य) एक राजा । भागवतमत में यह दंडपाणि राजा का पुत्र था ।