भरोसो जाहि दूसरो सो करो ।
मोको तो रामको नाम कलपतरु, कलिकल्यान फरो ॥१॥
करम उपासन ग्यान बेदमत सो जब भाँति खरो ।
मोहिं तो सावनके अंधहि ज्यों, सूझत हरो-हरो ॥२॥
चाटत रहेउँ स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो ।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस, पेखत परुसि धरो ॥३॥
स्वारथ औ परमारथहूको, नहिं कुञ्जरो नरो ।
सुनियत सेतु पयोधि पषनन्हि, करि कपि कटक तरो ॥४॥
प्रीति प्रतीति जहाँ जाकी तहॅं, ताको काज सरो ।
मेर तो माय-बाप दोउ आखर, हौं सिसु-अरनि अरो ॥५॥
संकर साखि जो राखि कहउँ कछु, तौ जरि जीह गरो ।
अपनो भलो रामनामहिं ते, तुलसिहि समुझि परो ॥६॥