लाज न आवत दास कहावत ।
सो आचरन-बिसारि सोच तजि जो हरि तुम कहँ भावत ॥१॥
सकल संग तजि भजत जाहि मुनि, जप तप जाग बनावत ।
मो सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन तेहि पावत ॥२॥
हरि निरमल, मल ग्रसित ह्रदय, असंजस मोहि जनावत ।
जेहि सर काक बंक बक-सूकर, क्यों मराल तहँ आवत ॥३॥
जाकी सरन जाइ कोबिद, दारुन त्रयताप बुझावत ।
तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत ॥४॥
भव-सरिता कहँ नाउ संत यह कहि औरनि समुझावत ।
हौं तिनसों हरि परम बैर करि तुमसों भलो मनावत ॥५॥
नाहिन और ठौर मो कहॅं, तातें हठि नातो लावत ।
राखु सरन उदार-चूड़ामनि, तुलसिदास गुन गावत ॥६॥