रुचिर रसना तू राम राम क्यों न रटत ।
सुमिरत सुख सुकृत बढ़त अघ अमंगल घटत ॥
बिनु स्नम कलि-कलुष जाल, कटु कराल कटत ।
दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत ॥
जोग जाग जप बिराग तप सुतीर्थ अटत ।
बाँधिबेको भव-गयन्द रजकी रजु बटत ॥
परिहरि सुर-मुनि सुनाम गुंजा लखि लटत ॥
लालच लघु तेरो लखि तुलसि तोहि हटत ॥