मेरे रावरिये गति रघुपति है बलि जाउँ ।
निलज नीच निर्गुन निर्धन कहँ जग दूसरो न ठाकुन ठाउँ ॥१॥
हैं घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ ।
बानर-बंधु बिभीषन हित बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ ॥२॥
प्रनतारति-भंजन, जन-रंजन, सरनागत पबि पंजर नाउँ ।
कीजै दास दास तुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ ॥३॥