रघुबर ! रावरि यहै बड़ाई ।
निदरि गनी आदर गरीबपर करत कृपा अधिकाई ॥१॥
थके देव साधन करि सब सपनेहुँ नहिं देत दिखाई ।
केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल सॅंग भाई ॥२॥
मिलि मुनिबंद फिरत दंडक बन, सौ चरचौ न चलाई ।
बारहि बार गीध सबरीकी, बरनत प्रीति सुहाई ॥३॥
स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर जती गयंद चढ़ाई ।
तिय-निंदक मतिम्म्द प्रजा-रज निज नय नगर बसाई ॥४॥
यहि दरबार दीनको आदर रीति सदा चलि आई ।
दीन दयालु दीन तुलसीकी काहे न सुरति कराई ॥५॥