माधवजू मोसम मंद न कोऊ ।
जद्यपि मीन पतंग हीनमति, मोहि नहिं पूजैं ओऊ ॥१॥
रुचिर रूप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो ।
देखत बिपति बिषय न तजत हौं ताते अधिक अयान्यो ॥२॥
महामोह सरिता अपार महँ, संतत फिरत बह्यो ।
श्रीहरि चरनकमल-नौका तजि फिरि फिरि फेन गह्यो ॥३॥
अस्थि पुरातन छुधित स्वान अति ज्यों भरि मुख पकरै ।
निज तालूगत रुधिर पान करि, मन संतोष धरै ॥४॥
परम कठिन भव ब्याल ग्रसित हौं त्रसित भयो अति भारी ।
चाहत अभय भेक सरनागत, खग-पति नाथ बिसारी ॥५॥
जलचर-बृंद जाल-अंतरगत होत सिमिट एक पासा ।
एकहि एक खात लालच-बस, नहिं देखत निज नासा ॥६॥
मेरे अघ सारद अनेक जुग गनत पार नहिं पावै ।
तुलसीदास पतित-पावन प्रभु, यह भरोस जिय आवै ॥७॥