जाके प्रिय न राम बैदेही ।
सो छाँड़िये कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥१॥
तज्यो पिता प्रह्लाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज बनितनि भये मुद-मंगलकारी ॥२॥
नाते नेह रामके मनियत सुह्रद सुसेब्य जहाँ लौं ।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै बहुतक कहौं कहाँ लौं ॥३॥
तुलसी सो सब भाँति परमहित पूज्य प्रानते प्यारो ।
जासों होय सनेह रामपद एतो मतो हमारो ॥४॥