जब मुरलीधरने मुरलीको अपने अधर धरी,
क्या-क्या परेम-प्रीत-भरी उसमें धुन भरी ।
लै उसमें 'राधे-राधे' की हरदम भरी खरी,
लहराई धुन जो उसकी इधर औ उधर जरी ।
सब सुननेवाले कह उठे जै जै हरी हरी,
ऐसी बजाई कृष्ण-कन्हैयाने बाँसुरी ॥
ग्वालोंमें नंदलाल बजाते वो जिस घड़ी,
गौएँ धुन उसकी सुननेको रह जातीं सब खड़ी ।
गलियोंमें जब बजाते तो वह उसकी धुन बड़ी,
ले-लेके अपनी लहर जहाँ कानमें पड़ी ।
सब सुननेवाले कह उठे जै जै हरी हरी,
ऐसी बजाई कृष्ण-कन्हैयाने बाँसुरी ॥
मोहनकी बाँसुरीके मैं क्या-क्या कहूँ जतन,
ले उसकी मनकी मोहिनी धुन उसकी चितहरन ।
उस बाँसुरीका आनके जिस जा हुआ वजन,
क्या जल, पवन, 'नजीर' पखेरू व क्या हरन-
सब सुननेवाले कह उथे जै जै हरी हरी
ऐसी बजाई कृष्ण-कन्हैयाने बाँसुरी ॥