गर यारकी मर्जी हुई सर जोड़के बैठे ।
घर-बार छुड़ाया तो वहीं छोड़के बैठे ॥
मोड़ा उन्हे जिधर वहीं मुँह मोड़के बैठे ।
गुदड़ी जो सिलाई तो वहीं ओढ़के बैठे ॥
औ शाल उढ़ाई तो उसी शालमें खुश है ।
पूरे हैं वही मर्द जो हर हालमें खुश है ॥१॥
गर खाट बिछानेको मिली खाटमें सोये ।
दूकाँमें सुलाया तो वो जा हाटमें सोये ॥
रस्तेमें कहा सो तो वह जा बाटमें सोये ।
गर टाट बिछानेको दिया टाटमें सोये ॥
औ खाल बिछा दी तो उसी खालमें खुश है ।
पूरे हैं वही मर्द जो हर हालमें खुश है ॥२॥
उनके तो जहाँमें अजब आलम हैं नजीर आह !
अब ऐसे तो दुनियामें वली कम हैं नजीर आह !
क्या जाने, फरिश्ते हैं कि आदम है नजीर आह !
हर वक्तमे हर आनमें खुर्रम हैं नजीर आह !
जिस ढालमें रखा वो उसी ढालमें खुश है ।
पूरे हैं वही मर्द जो हर हालमें खुश है ॥३॥