ऋषि बोले।
अगस्त्यजी रामचन्द्रके निकट क्यों आये थे उर किस प्रकार से रामचन्द्रसे विरजा दीक्षा कराई थी इससे रामचंद्रको किस फलकी प्राप्ति हुई सो आप हमसे कहिये ॥१॥
सूत उवाच ।
सूतजी बोले जिस समय जनककुमारी सीताको रावणने हरण किया था तब रामचन्द्रने वियोगके कारण बहुत विलाप किया ॥२॥
निद्रा देहाभिमान और भोजन त्यागकर रातदिन शोक करते भाईसहित रामचन्द्रने प्राण त्याग करनेकी इच्छा की ॥३॥
अगस्त्यजी यह बात जानकर रामचंद्रजी के समीप आये और मुनिने रामचन्द्रको संसारकी असारता समझाई ॥४॥
अगस्त्य उवाच ।
अगस्त्यजी बोले- हे राजेन्द्र! यह क्या विषाद करते हो, स्त्री किसकी इसका विचार तो करो पृथ्वी, आप, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों का बना हुआ यह देह जड है इसको ज्ञान नही होता ॥५॥
और आत्मा तो निर्लेप सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दस्वरूप है आत्मा न कभी उत्पन्न होता न मरता दुःख भोगता है ॥६॥
जिस प्रकार यह सूर्य संपूर्ण संसारके चक्षुरूप से स्थित है और चक्षुओंके दोषसे कभी लिप्त नही होता ॥७॥
इसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का आत्माभी दुःखमें लिप्त नही होता और यह देहभी मलका पिंड तथा जड है यह जीव कलारहित होने से जड है ॥८॥
यह काष्ठ अग्निके संयोगसे भस्म हो जाता है, सियार आदि इसको खाजाते है, तौ भी नही जानता कि उसके वियोग में क्या दुःख होता है ॥९॥
जिसका सुवर्णके समान गौरवर्ण, अथवा दूर्वादलके समान श्याम स्वरूप है, कुचकलश जिसके उन्नत है, मध्यभाग सूक्ष्म है ॥१०॥
बडे नितम्ब और जांघोवाली चरणतल जिसका कमलके सदृश रक्तवर्ण है जिसका मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान है और पके बिम्बा फलके समान जिसके अधरोष्ठ है ॥११॥
नील कमलकी समान जिसके विशाल नेत्र है, मत्त कोकिलाकी समान जिसके वचन और मत्त हाथीकी समान जिसकी चाल है ॥१२॥
ऐसी स्त्री कामदेवकि बाणकी समान कटाक्षोंस मेरे ऊपर कृपा करती है इस प्रकारसे जो मूर्ख मानता है वही कामका शिष्य है ॥१३॥
हे राजन! सावधान होकर सुनो मैं इसका विवेक कथन करता हुं यह जीव स्त्री पुरुष या नपुंसक नही है ॥१४॥
यह देही मूर्तिरहित सब देहों में स्थित रूपरहित सर्वव्यापी सबका साक्षी देहमें स्थित हो प्राणीको सजीव करनेवाला है जिसको सूक्ष्मांगी सुकुमार बाला कहते है वह एक मलका पिंड और जडस्वरूप है ॥१५॥
वह न कुछ देखती न सुनती न सूंघती है जिसका शरीर चर्ममात्रका है हे रामचंद्र ! बुद्धिसे विचारो और छोडो ॥१६॥
जो प्राणोंसे भी अधिक प्यारी है वही सीता तुम्हारे दुःखका कारण होगी । पंच महाभूतोंसे उत्पन्न होनेके कारण पांचभौतिक देह उत्पन्न होते है ॥१७॥
परन्तु उन सबमें आत्मा एक परिपूर्ण सनातन है इस विचार से कौन स्त्री कौन पुरुष सब ही सहोदर है ॥१८॥
जिस प्रकार अनेक गृह निर्माण करनेमें आकाश अबच्छिन्नताको प्राप्त होता है अर्थात उन सबमें मिल जाता है पश्चात उन घरों के जल जानेपर कुछ हानि को भी प्राप्त नही होता ॥१९॥
इसी प्रकार देहोंमें आत्मा परिपूर्ण और सनातन है देहसम्बन्धसे अनेक प्रकारका प्रतीत होता है परन्तु उनके नाश होने पर आत्मा नष्ट नही होता, वह एकरूप है ॥२०॥
जो मारनेवाला जानता है मैने मारा जो मरनेवाला जानता है मै मरा यह दोनों न जानने से मूर्ख है, कारण कि न यह मारता है और न वह मारा जाता है ॥२१॥
हे राम! इस कारण अतिदुःख करनेसे खेदका कारण क्या है अपना स्वरूप इस प्रकार जानकर दुःखको त्याग कर सुखी हो ॥२२॥
श्रीरामचंद्र बोले हे मुने! जब देहको भी दुःख नही होता और परमात्मा को भी दुःख नही होता है, तो सीताके वियोग की अग्नि मुझे कैसे भस्म करती है ॥२३॥
जो वस्तु सदा अनुभव करी जाती है तुम कहते हो कि वह नही है । हे मुनिश्रेष्ठ! फिर इस बातमें मुझे कैसा विश्वास हो ॥२४॥
जब सुख दुःखको भोक्ता जीव नही है, तौ कौन है? जिसके द्वारा प्राणी दुःखी होता है, सुखदुःख को भोक्ता कौन है हे मुनिश्रेष्ठ! कहिये ॥२५॥
अगस्त्य उवाच ।
अगस्त्यजी बोले शिवजी की माया कठिनतासे जानने योग्य है । जिसने जगत को मोह लिया है उस मायाको तो प्रकृति जानो और मायावाला महेश्वरको जानो ॥२६॥
उसीके अवयवरूप जीवोंसे सम्पूर्ण जगत व्याप्त है, वह महेश्वर सत्यस्वरूप ज्ञानस्वरूप अनन्त और सर्वव्यापी है ॥२७॥
उसीका वंश जीवलोकमें सब प्राणियों के ह्रदयमें स्थित हुआ है जिस प्रकार से काष्ठ के योगसे अग्निमें स्फुल्लिंग उठते है इसी प्रकार जीवभी ऐसा परमात्मासे होता है ॥२८॥
यह ईश्वरांश जीव अनादिकालके कर्मबंधनपाशमें बंधे है यह अनादि वासनाओंसे युक्त है और क्षेत्रज्ञ कहलाते है ॥२९॥
मन बुद्धि चित अहंकार यह चारों अन्तःकरण के ही भेद है । इस अन्तःकरण चतुष्टयमें क्षेत्रज्ञों का प्रतिबिम्ब पडता है ॥३०॥
वही जीवपनको प्राप्त होकर कर्मफलके भोक्ता हुए है, वही जीव कर्म भोगने के स्थान देहों को प्राप्त होकर विषय सेवन करने से सुख वा दुःख भोग करते है ॥३१॥
स्थावर जंगमके भेद से दो प्रकार का शरीर कहा जाता है ॥३२॥
वृक्ष, लता, गुल्म, यह स्थावर सूक्ष्म देह कहलाते है, और अण्डज, पक्षी, सर्प इत्यादि, स्वेदज, कृमि, मशकादि, जरायुज, मनुष्य गौ आदि, यह जंगम शरीर कहलाते है ॥३३॥
कितने एक प्राणी शरीर धार के निमित्त कर्मानुसार योनियों में प्रवेश करते है और दूसरे वृक्षों का आश्रय करते है ॥३४॥
जब यह जीव विषयोंमें लिप्त होता है तब मैं सुखी हूं दुःखी हूं ऐसा मानता है, यद्यपि यह निर्लेप ज्योतिःस्वरूप है परन्तु शिवजीकी माया से मोहित सुख दुःखका अभिमानी होता है ॥३५॥
काम, क्रोध, लोभ,मद, मात्सर्य और मोह यह छः महाशत्रु अहंकार से उत्पन्न होते है ॥३६॥
यही अहंकार स्वप्न और जाग्रत अवस्था में जीवको दुःख देता है और सुषुप्तिमें सूक्ष्मरूप के होने और अहंकार के अभाव से यह जीव शंकरता (आनन्दरूप) को प्राप्त होता है ॥३७॥
इस प्रकार यह माया में मिलने से सुख दुःखका कारण उत्पन्न करता है जिस प्रकार सूर्य की किरणों के पडने से सीपी में चांदी भासती है इसी प्रकार शिवस्वरूप में माया से विश्व दीखता है ॥३८॥
इस कारण तत्त्वज्ञानसे तो कोई भी दुःखभागी नही है । इससे हे राम! तुम दुःखको त्याग वृथा क्यो दुःखी होते हो? ॥३९॥
श्रीराम उवाच ।
श्रीरामचंद्र बोले, हे मुनिराज! जो तुमने मेरे सन्मुख कहा है, यह सब सत्य है तथापि भयंकर प्रारब्धदैवका दुःख मुझे नही छोड़ता है ॥४०॥
जिस प्रकार मद्य प्राणीको मत्त कर देता है इसी प्रकार अज्ञानहीन तत्त्वज्ञानयुक्त ब्राह्मणको भी प्रारब्धकर्म नही छोड़ता ॥४१॥
बहुत कहने से क्या है यह काम प्रारब्ध का मन्त्री है, यह मुझको दिनरात पीड़ा देता है और इसी प्रकारसे अहंकार भी दुःख देता है ॥४२॥
इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे अगस्त्यराघवसंवादे वैराग्योपदेशोनाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
जीव अत्यन्त पीडित होकर स्थूल देह को त्याग करता है । इस कारण हे ब्राह्मण! मेरे जीवन के निमित्त उपाय करो ॥४३॥
इति श्रीप० शिवगीतासू० ब्रहवि० यो० अगस्त्यराघवसंवादे भाषाटीकायां वैराग्योपदेशो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥