जीवकी देहान्तरगरि ओर परलोकगति लिंग देहके कारण होती है यह बात संक्षेपसे कहकर अब विस्तारसे वर्णन करते हुए श्रीभगवान बोले-हे नृपश्रेष्ठ! उस जीवकी देहान्तरगति और परलोकगति मै तुमसे वर्णन करता हूं, सावधान होकर सुनो ॥१॥
इस स्थूलदेहसे जो कुछ भोजन किया जाता और पिया जाता है उसीके कारण लिंग और स्थूल देह में सम्बन्ध उत्पन्न होता है, उसीसे जीवन धारण होता है ॥२॥
जिस समय व्याधि वा जरा अवस्थासे कफ प्रबल होता है तब जाठरानल के मंद होने से भोजन किया हुआ अन्न अच्छी तरह नही पचता है ॥३॥
जब भोजन किये हुए रसके न प्राप्त होनेसे शीघ्र ही धातु सूख जाते है, और भोजन किये तथा पान किए रससे ही शरीरमें जाठराग्निके दीप्त रहते जो अन्न भक्षण किया जाता है, वह रसरूप होकर शरीर को पुष्ट करता है ॥४॥
उस समय प्राणवायु वह सम्पूर्ण रस लेकर सब धातुओं में पहुचांता है इसी कारण से यह समान वायु कहाता है और वृद्धावस्थामें वह रस उत्पन्न नही होता इस कारण शरीरके बंधन जो दृढ़तासे परस्पर संघट्ट है शिथिल हो जाते है ॥५॥
जिस प्रकार कि, आम्र फल पककर अपने भारसे आपही शीघ्र पतित हो जाता है, इसी प्रकार शरीरके शिथिल होनेसे लिंगशरीरका स्थूल से वियोग हो जाता है ॥६॥
सम्पूर्ण इन्द्रियोकी वासना, आध्यात्मिक-जीवसम्बन्धी बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियादि आधिभौतिक-प्राप्त होनेवाले देहके कारणभूत सूक्ष्म रूपवाले कर्म यह तीनों आकर्षित होकर ह्रदयकमलमें एकता को प्राप्त होते है ॥७॥
तब मुख्य प्राणवायु शेष नौ वायुओंसे संयुक्त होकर ऊर्ध्वश्वासरूपी हो जाता है, और फिर वे सब एक होकर जीवात्मा से संयुक्त होते है ॥८॥
विद्या, कर्म और वासनासे युक्त हो यह जीव अपने कर्मसे नाडीमार्गका आश्रयकरके नेत्रमार्ग अथवा ब्रह्मरंध्रके द्वारा बहिर्गत होता है ॥९॥
जिस प्रकारसे घडेको इस देशसे दूसरे स्थानमें ले जाते है परन्तु वह आकाशासे पूर्ण हो जाता है, जहां घट जायगा उसी उसी स्थानमें घटाकाशभी जायगा इसी प्रकार से जहाँ जहाँ लिंगशरीर गमन करता है उसी उसी स्थानमें जीव होता है ॥१०॥११॥
और कर्मानुसार दूसरे देहको प्राप्त होता है, जिस प्रकार नदीका मच्छ कभी इस किनारे और कभी दूसरे किनारे जाता है, इसी प्रकारसे यह मोक्ष न होनेतक अनेक योनियोंमे भ्रमण करता रहता है ॥१२॥
जो पापी है उनको यमदूत ले जाते है यह यातना देहका जो नरक दुःख भोगनेके लिये दी जाती है, उसको आश्रय करके केवल नरकों ही को भोगता है ॥१३॥
और जिन्होंने सदा इष्ट (यज्ञादि) पूत- (वापीकूपतडागादि निर्माण करना) कर्म किये है, वह पितृलोकको गमन करते है, यमदूत उन्हे पितृलोकको प्राप्त करते है ॥१४॥
उस मार्गका क्रम यह है कि, धूम फिर रात्रिअभिमानी देवता के निकट फिर कृष्णपक्षाभिमानी देवता के निकट फिर दक्षिणायन अभिमानी देवता के निकट फिर वहांसे पितृलोकमें जाता है, पितृलोकसे आगे चन्द्रलोकको प्राप्त हो दिव्य देह पाकर महालक्ष्मीका भोग करता है ॥१५॥
वहां यह चन्द्रमाकीही समान होकर कर्मकी फलकी अवधितक चन्द्रलोकमें वास करता है, जब पुण्य फल समाप्त हो जाता है तो जिस क्रमसे इस लोकमें गमन हुआ था उसी क्रमसे इस लोकमें फिर आता है ॥१६॥
चन्द्रलोकसे चलते समय उस शरीरको छोड यह आकाशरूप होकर आकाशसे वायुमें और वायुसे जलमें आता है ॥१७॥
जलसे मेघोमें प्राप्त होकर फिर यह वर्षाद्वारा पृथ्वीपर पतित होता है, फिर अनेक कर्मके वश होकर भक्षण योग्य अन्नमें प्राप्त होता है ॥१८॥
और कितने एक शरीरप्राप्तिके निमित्त मनुष्यादि योनिमें प्राप्त होते है और कितने एक कर्म और ज्ञानके तारतम्यसेस्थावरत्व को प्राप्त हो जाते है ॥१९॥
जो जीव अन्नमें प्राप्त हुए है, उस अन्नको स्त्री पुरुष भक्षण करते है उससे स्त्री और पुरुषोंका रज और शुक्र होकर उन दोनोंके संयोगसे वह गर्भरूप धारण करते है ॥२०॥
यही जीव कर्मके अनुसार स्त्री, पुरुष और नपुंसक होता है, इस प्रकारसे इस जीवकी इस लोकमें गति और परलोकगति होती है अब इसकी मुक्तिका वर्णन करता हूँ ॥२१॥
जो शमदमादिसाधनसम्पन्न सदा अपने वर्णाश्रैमके कर्म करते और फलकी आकांक्षा न करके ईश्वरापण कर देते है वह मनुष्य देवयानमार्गसे ब्रह्मलोकपर्यन्त गमन करते है ॥२२॥
वह प्रथम ज्योतिमें प्राप्त हो पीछे दिन और फिर शुक्लपक्षाभिमानी देवताके निकट जाता है फिर उत्तरायणको प्राप्त होकर संवत्सरके निकट गमन करता है ॥२३॥
फिर सूर्यलोकको प्राप्त होता है, चन्द्रलोकसे भी ऊपर विद्युत लोकको प्राप्त होता है फिर उससे आगे कोई एक पुरुष दिव्य देहको प्राप्त हो ब्रह्मलोकको जाता है, और वहांसे यहां नही आता है ॥२४॥
ब्रह्मलोकमें प्राप्त होकर दिव्य देहके आश्रित हो यह जीव रहता है, उस दिव्य देहसे ब्रह्मलोकमें अनेक प्रकारके मन इच्छित भोगोंको भोगता हुआ बहुत कालतक उस स्थानमें वासकर ब्रह्माके साथ मुक्त हो जाता है है उसकी फिर आवृत्ति नही होती ॥२५॥२६॥
जिस प्रकारसे स्वप्नमें देखी हुई सृष्टि जाग्रत होतेही लय हो जाती है इसी प्रकारसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त होनेसे यह सब सृष्टि लय हो जाती है और जिन्होने केवल पापही किये है और उपासना तथा पुण्यकर्मसे रहित उनकी तीसरी गति अर्थात नरक होता है ॥२७॥२८॥
वे अनेक प्रकारके रौरव, महारौरव, घोर नरकोंको भोगकर पीछे शेष कर्मोके अनुसार क्षुद्र जन्तुओंके शरीरको प्राप्त होते है ॥२९॥
पृथ्वीमें लीख, मच्छर, डांश आदिका जन्म लेता है, इस प्रकारसे जीवकी गति तुमसे वर्णन की अब और क्या सुनने की इच्छा है ॥३०॥
श्रीराम उवाच ।
रामचन्द्र बोले, हे भगवन् ! आपने उपासना और कर्मफलसे अनेक प्रकारसे चन्द्रलोक और ब्रह्मलोककी प्राप्ति वर्णन की सो यथार्थ है ॥३१॥
गन्धर्वादि लोक और इन्द्रादि लोकोंमे किस प्रकारसे भोग प्राप्त होते है कोई देवता कोई इन्द्र और कोई गन्धर्व होता है ॥३२॥
हे शंकर! यह कर्मका फल है वा उपासनाका फल है सो कृपा करके वर्णन किजिये, इसमें मुझे बड़ा सन्देह है ॥३३॥
श्रीभगवानुवाच ।
शिवजी बोले, उपासना और शुभकर्म, इन दोनोंहीके योगसे फल प्राप्त होता है, वह हम वर्णन करते है, जो मनुष्य युवा सुन्दर शूर नीरोग और बलवान हो ॥३४॥
वह यदि सप्तद्वीपयुक्त पृथ्वीको निष्कंटक भोग करता हो उसका नाम मानुषानन्द है यह आनन्द साधारण मनुष्योको देह प्राप्त होनेवाले आनन्दसे सौ गुणा अधिक है ॥३५॥
जो मनुष्य तप आदिसे संयुक्त हो वह गन्धर्व होता है मनुष्योंके आनन्दसे सौगुणा आनन्द गन्धर्वोको प्राप्त होता है ॥३६॥
इसी प्रकारसे ऊपर ऊपर पितृलोक देवादिलोकमें उत्तरोत्तर सौगुणा आनन्द बढता जाता है ॥३७॥
तिनमें भी देवता, देवतासे इन्द्र, इन्द्रसे बृहस्पति, बृहस्पतिसे ब्रह्मदेव, ब्रह्मदेवसे ब्रह्मानंद उत्तरोत्तर सौ २ गुणा अधिक है ॥३८॥
ज्ञानके आनंदसे अधिक आनंद तो देवलोकमें भी नही है, कारण कि, ज्ञानीको किस वस्तुकी अपेक्षा नही है कहींसे भय नहीं है, जो ब्राह्मण क्षत्रियादि वेदवेदांगके पारगामी निष्पाप और निष्काम है, और भगवत् की उपासना करनेवाले है ॥३९॥
वह अनुक्रमसे उत्तर उत्तर आनंदको प्राप्त होते है परन्तु हे दशरथकुमार! यह जो कुछ आनंद है सौ आत्मज्ञानकी बराबर नही है इससे आत्मज्ञानका अनुष्ठान करना उचित है ॥४०॥
जो ब्राह्मण ब्रह्मदेवता है उसे कर्मउपासनासे कुछ प्रयोजन नही है न उसकी कर्मसे कुछ वृद्धि और न करनेसे कुछ हानि भी नही, जो शास्त्रने विहित कर्मोका विधान और निषिध कर्मोंका निषेध किया है, वह केवल जब तक ज्ञान नही तभीतक है, ज्ञान होने पर कुछ नही, और यदि ज्ञानी लोकस्थापनके निमित्त करे तो भी कुछ हानि नही ॥४१॥
इस कारणसे ज्ञानवान ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ है, जो कोई पुण्यवान ज्ञानी जानकर कर्म करता है उसके पुण्यका फल अक्षय होता है ॥४२॥
जिस फलको मनुष्य करोड ब्राह्मणके भोजन करानेस प्राप्त होता है वह फल एक ज्ञानीके भोजन कराने से प्राप्त होजाता है ॥४३॥
जो वस्तु ज्ञानिजनों को दिया जाता है वह करोडगुण मिलती है और जो मनुष्योंमें अधम ज्ञानीकी निन्दा करता है वह क्षयरोगको प्राप्त होकर मृतक हो जाता है कारण कि, ज्ञानी साक्षात् ईश्वर है ॥४४॥
हे रामचन्द्र! जो निर्गुण को कठिन समझते है वह पहले सगुण उपासना करे, किसीभी सगुण उपासना करनेवाले की अधोगति नही होती, इस कारण सगुणरूपकी ही उपासना करके सुखी हो ॥४५॥
इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे शिवराघवसंवादे जीवगत्यादिनिरूपणं नामैकादशोऽध्यायः ॥११॥