श्रीसूतजी बोले-इसके उपरान्त उस स्थानमें एक सुवर्णका बड़ा रथ प्रादुर्भूत हुआ जिसकी अनेक रत्नोंकी कान्तिसे सब दिशा चित्र विचित्र हो गई थी ॥१॥
नदी के किनारेकी पंकमें जिसके चारो चक्र स्थित थे, मोतियोंकी झालर और सैकड़ो श्वेत छत्रसे युक्त ॥२॥
सुवर्णके खुरमढे हुए चार घोडोंसे शोभित मोतियोंकी झालर और चंदोवेसे शोभायमान जिसकी ध्वजामें वृषभका चिह्न था ॥३॥
जिसके निकट एक मत्त हस्तिनी चलती थी, जिसपर रेशमकी गद्दियाँ बिछाई थी, पांच भूतोंके अधिष्ठातृ देवताओंसे शोभित पारिजात कल्पवृक्षके फूलोंकी मालाओंसे सज्जित ॥४॥
मृगनाभिसे उत्पन्न हुई कस्तूरीके मदवाला कपूर और अगर धूप की उठी हुई गन्धसे भौरों को आकर्षण करनेवाला ॥५॥
प्रलयकालके समान शब्दायमान अनेक प्रकार के बाजोंसे युक्त वीणावेणु मधुर बाजे और किन्नरो गणों से युक्त ॥६॥
इस प्रकारके श्रेष्ठरथको देखकर वृषभसे उतर शिवजी पार्वती सहित वस्त्रकी शय्यावाले उस रथके स्थानमें प्रविष्टित हुए ॥७॥
उसमें देवांगना श्वेत चमर और व्यजनके चलानेसे शिवजीको प्रसन्न करने लगी ॥८॥
शब्दायमान कंकणोकी ध्वनि और निर्मल मंजीरीके शब्द वीणावेणु के गीतसे मानों त्रिलोक पूर्ण हो गया ॥९॥
तोतोंके वाक्यकी मधुरता और श्वेत कबूतरोंके शब्दसे जगत शब्दायमान हो गया, प्रसन्नतासे अपने फण उठाये हुए शिवजीके भूषणरूप शरीरमें लिपटे सर्पोंको देखकर करोड़ो मयूर प्रसन्न हो अपनी चन्द्रका दिखाते हुए नृत्य करने लगे ॥१०॥
तब शिवजी प्रणाम करते हुए रामको उठाकर प्रसन्न मनसे दिव्य रथमें ले आये ॥११॥
और अपने दिव्य कमण्डलुके जलसे सावधान हो आचमनकर रामचन्द्रको आचमन कराय अपनी गोदमें बैठाया ॥१२॥
इसके उपरान्त रामचन्द्रको दिव्य धनुष, अक्षय तरकस और महापाशुपतास्त्र प्रदान किया ॥१३॥
और रामचन्द्रसे बोले, हे राम! यह मेरा उग्र अस्त्र जगत्का नाश करनेवाला है ॥१४॥
इस कारण सामान्य युद्धमें इसका प्रयोग नही करना । इसका निवारण करनेवाला त्रिलोकीमें दूसरा नही है ॥१५॥
इस कारण हे राम! प्राणसंकट उपस्थित होनेपर इसका प्रयोग करना उचित है, दूसरे समयमें इसका प्रयोग करनेसे जगतका नाश हो जाता है ॥१६॥
फिर शिवजी देवताओंमें श्रेष्ठ लोकपालों को बुला प्रसन्न मन हो बोले, रामचन्द्रको सब कोई अपने २ अस्त्रप्रदान करो ॥१७॥
यह रामचन्द्र उन अस्त्रोंसे रावणको मारेंगे कारण कि, उसको मैने वर दिया है कि, तू देवताओं से न मरेगा ॥१८॥
इस कारण तुम सब युद्धमें भयंकर कर्म करनेवाले वानरों का शरीर धारण करके इनकी सहायता करो इससे तुम सुखी होगे ॥१९॥
शिवजीकी आज्ञा को शिरपर धर प्रणामकर हाथ जोड देवताओंने शिवजीके चरणों में प्रणाम कर अपने २ अस्त्र दिये ॥२०॥
विष्णुने नारायणास्त्र, इन्द्रने ऐन्द्रास्त्र, ब्रह्माने ब्रह्मदण्डास्त्र, अग्निने आग्नेयास्त्र दिया ॥२१॥
यमराजने याम्यास्त्र, निऋतिने मोहनास्त्र, वरुणने वरुनास्त्र, वायुने वायव्यास्त्र ॥२२॥
कुबेरन सौम्यास्त्र, ईशानने रुद्रास्त्र, सूर्यने सौरास्त्र, चन्द्रमाने सौम्यास्त्र, विश्वेदेवाने पार्वतास्त्र, आठों, वसुओंने वासवास्त्र प्रदान किया ॥२३॥
तब दशरथकुमार रामचन्द्र प्रसन्न हो शिवजीको प्रणाम कर हाथ जोड़ खडे हो भक्तिपूर्वक बोले ॥२४॥
श्रीराम उवाच ।
श्रीरामचन्द्र बोले, हे भगवन् ! मनुष्यों से तो क्षारसमुद्र उल्लंघन नही किया जायेगा और लंकादुर्ग देवता तथा दानवों को भी दुर्गम है ॥२५॥
और वहां करोड़ो बली राक्षस रहते है वे सब जितेन्द्रिय वेदपाठ करने में तत्पर और आपके भक्त है ॥२६॥
अनेक प्रकारकी मायाके जानने हारे बुद्धिमान अग्निहोत्री है । केवल मै और भ्राता लक्ष्मण युद्धमें उनको कैसे जीतसकेंगे ॥२७॥
श्रीमहादेव उवाच ।
शिवजी बोले - हे रामचन्द्र ! रावण और राक्षसोंके मारनेमें विचार करने की कुछ आवश्यकता नही, कारण कि उसका काल आगया है ॥२८॥
वे देवता और ब्राह्मणका दुःख देनेरूपी अधर्ममें प्रवृत्त हुए है सुव्रत! इस कारण उनकी आयु और लक्ष्मीका भी क्षय हो गया है ॥२९॥
उसने राजस्त्री जानकीजी की अवमानना की है । इस कारण तुम उसे सहज में मार सकोगे, कारण कि वह इस समय मद्यपानमें आसक्त रहता है ॥३०॥
अधर्ममें प्रीति करनेवाला शत्रु भाग्यसे ही प्राप्त होता है । जिसने वेदशास्त्र पढा हो और सदा धर्ममें प्रीति करता हो वह विनाशकाल आने पर धर्मको त्याग कर देता है ॥३१॥
जो पापी सदा देवता, ब्राह्मण और ऋषियों को दुःख देता है, उसका नाश स्वयं होता है ॥३२॥
हे राम ! किष्किंधा नामक नगरमें देवताओंके अंशसे बहुतसे महाबली और दुर्जय वानर उत्पन्न हुए है ॥३३॥
वे सब तुम्हारी सहायता करेंगे । उनके द्वारा तुम सागरपर सेतु बंधवाना अनेक पर्वत पर लाकर वे वानर पुल बांधेगे उसपर सब वानर उतर जायेंगे । इस प्रकार रावणको उसके साथियों सहित मारकर वहां से अपनी प्रियाको लाओ ॥३४॥
जहां संग्राममें शस्त्रसे ही जय प्राप्त होनेकी संभावना हो वहां अस्त्रोंका प्रयोग न करना और जिनके पास अस्त्र नही है अथवा थोडे शस्त्र है तथा जो भाग रहे ऐसे पुरुषोके ऊपर दिव्यास्त्रका प्रयोग करनेवाला स्वयं नष्ट हो जाता है ॥३५॥
बहुत कहने से क्या है यह संसार जो मेरा ही उत्पन्न किया है, मै ही इसका पालन और मै ही इसका संहार करता हूँ ॥३६॥
मै ही एक जगत् की मृत्यु का भी मृत्युस्वरूप हूँ, हे राजन्! मै ही इस चराचर जगत् का भक्षण करनेवाला हूँ ॥३७॥
इति श्रीपद्मपुराणे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे शिवराघवसंवादे रामाय वरप्रदानं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
वे युद्धदुर्मद सब राक्षस तो मेरे मुखमें प्राप्त हो चुके है तुम निमित्तमात्र होकर संग्राममें कीर्ति पाओगे ॥३८॥
इति श्रीपद्मपुराणे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे शिवराघवसंवादे रामाय वरप्रदानं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥