श्रीराम उवाच ।
शिवजीसे ब्रह्मसाक्षात्कारकी विधि सुनकर अब दूसरे साधनोंसे प्रश्न करते हुए, रामचन्द्रजी बोले- हे भगवन् ! यद्यपि तुम्हारा रूप सच्चिदानंदात्मक निरवयव क्रियाशून्य और निर्दोष है ॥१॥
तथा सब धर्मोसे परे मन और वाणीके अगोचर तुमको सर्वव्यापक होनेसे जीव सर्वस्थानमें स्थित आत्मा स्वरूपसे देखता है ॥२॥
आत्मविद्या और तपही जिसका मूल साधन है, जो उपनिषदोंका मुख्य तात्पर्य है, जो मूर्तिरहित सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा अर्थात् सब जीव जिसके अंश है, जो कारण का कारण अदृश्य स्वरूप है ॥३॥
जो अतिसूक्ष्म और इन्द्रियोंसे अग्राह्य है वह ब्रह्म ग्राह्य कैसे हो सकता है, उस सूक्ष्ममे चित्तकी वृत्ति किस प्रकार हो सकती है, यह मुझे संदेह है इसी से बुद्धि व्यग्र है इसका उपाय आप वर्णन कीजिये ॥४॥
श्रीभगवानुवाच ।
श्रीशिवजी बोले- हे महाभुज रामचन्द्र! सुनो मै इस विषयमें उपाय कहता हूँ प्रथम सगुण उपासना करते २ चित्त को एकाग्र करे और स्थूलसौरांभिकान्यायसे निर्गुण स्वरूपमें चित्तकी वृत्ति प्रवृत्त करे, स्थूलसौरांभिकान्याय इसको कहते है कि, प्रियमनुष्यको जिस प्रकार मृगजल दिखाकर रवि य्थार्थ जल है ऐसा प्रतारणासे बुलाकर फिर वास्तविक जल दिखाते है, इसी प्रकार प्राणीको प्रथम साधनादि का उपदेश कर पीछे ब्रह्मज्ञान कथन करते है ॥५॥
और इस प्रकार जाने कि इस अन्नके पिंड स्थूल देह में जन्म मृत्यु व्याधि यही दृढतासे विद्यमान है, अर्थात् निश्चयही इसकी दशा बदलती रहती है ॥६॥
ऐसे स्थूल देहमें प्राणोको अहंभावसे जो आत्मबुद्धि दृढ हो जाती है वह नही मिटती, आत्मा कभी जन्म नही लेता और इसका नाश भी नही होता कारण कि यह नित्य है ॥७॥
अब शरीरकी अवस्था वर्णन करते इसकी निस्सारता प्रतिपादन करते है । उत्पत्ति (होना) अस्ति, परिपक्वता, वृद्धि, क्षय और नाश यह छः अवस्था इस शरीर की है ॥८॥
और घटमे स्थित आकाश जिस प्रकार निर्विकार है, इसी प्रकार इस देहमें आत्मा विकार रहित है, इस प्रकार देह और आत्मा इन दोनोंके धर्म परस्पर विरुद्ध है, अज्ञानी जन अविद्यासे देहको आत्मा मानते है, और ज्ञानी देहसे आत्मा को पृथक् देखते है ॥९॥
घडियामें गला करके डाले सुवर्णकी कान्तिके समान प्राणमय कोश है, यह स्थूल देह के अन्तर प्राणादि वायुसे बद्ध वर्तमान है, परन्तु पाय्वादि इन्द्रियोंसे युक्त चलनादि कर्मोंसे युक्त क्षुधापिपाससे व्याप्त और जड होने के कारण यह आत्मा नही है ॥१०॥११॥
आत्मा चैतन्यरूप है जिसके द्वारा यह जीव अपने शरीरको देखता है आत्माही परब्रह्म निर्लेप और सुखका सागर है ॥१२॥
अज्ञान इस ब्रह्मका ग्रास नही कर सकता, न ब्रह्म किसी वस्तुका ग्रास करता है अर्थात् वह अनामय परिपुर्ण सर्वत्र सुखस्वरूप है, उसे कार्य कारण की अपेक्षा नही है, उस प्राणमय कोशके अन्तर्गत मनोमयकोश है, वह संकल्प विकल्परूप बुद्धि और इंद्रियोंसे समायुक्त है ॥१३॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह मात्सर्य और मद यह शत्रुओंका षड्वर्ग और ममता इच्छादिक यह सम्पूर्ण मनोमयकोशके धर्म है ॥१४॥
जो कर्मविषयिणी बुद्धि और वेदशास्त्र से निश्चित की गई है, वह ज्ञान इन्द्रियोके सहित विज्ञानमय कोशमें स्थित रहती है ॥१५॥
इसमें कर्तृत्वपनका अभिमानी निःसन्देह वह जीव विद्यमान है । जो इस लोक तथा परलोकमें गमन करता है, व्यवहारमें जिसको जीव कहते है ॥१६॥
आकाशादिके सात्त्विक अंशसे ज्ञानेन्द्रियोंकी उत्पत्ति होता है, आकाशसे श्रोत्र, पृथ्वीसे घ्राण, जलसे जिह्वा, और तेजसे चक्षु और वायुसे त्वचा उत्पन्न होती है इस प्रकार यह इन्द्रिय पांचभौतिक है, जीवत्वप्राप्तिके तीन शरीर है, स्थूल, सूक्ष्म और कारण, स्थूल का अन्त सूक्ष्म और सूक्ष्मका अन्तः कारणशरीर है, सूक्ष्म शरीरकोही लिंग शरीर कहते है, इन तीनों शरीरोंमे पांचकोश रहते है, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय, स्थूल शरीरमें अन्नमय कोश है, सूक्ष्म शरीरमें आनंदमय कोश है, इन पांचो कोशोंमें अन्नमयकोशसे वर्णन करके लिंग शरीरके तीनों कोश कहकर लिंगशरीरके अवयवोंका वर्णन किया है ॥१७॥१८॥
इन पांचभूतोंके सात्विकादि अंशसे बुद्धि और मन उत्पन्न होते है, जिसमें बुद्धि निश्चयात्मिका और मन संशयात्मक है और वचन हाथ्, पाद, पायु, उपस्थ यह पांच कर्मेन्द्रिय तो आकाशादिकोंके रजोगुण अंशसे क्रमपूर्वक उत्पन्न होते है ॥१९॥
और उन सबके रजोगुण समान मिलनेसे पांच प्राणादि वायु उत्पन्न होते है, यही पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, पांच प्राण, मन और बुद्धि मिलाकर सत्रह अवयवोंसे लिंग शरीरकी उत्पत्ति होती है ॥२०॥
यह लिंगशरीर तपाये हुए लोहखण्डकी समान गोल है, इस कारण परस्परके अधयस पड़नेसे साक्षी चैतन्यसे युक्त है ॥२१॥
जहा साक्षी चैतन्य लिंग शरीरसे अध्यासको प्राप्त होता है, वही आनंदमयकोश है, उस आनंदमयकोशका जो कर्तृत्वपनका अभिमानी है, वही उपासना और कर्म फलसे इस लोक तथा परलोकमें कर्मफलका भोगनेवाला कहा जाता है ॥२२॥
और जिस समय निद्रावस्थामें यही आत्मा लिंगशरीरके अध्यासको छोड़कर केवल अपने स्वरूपमें अविद्यासंयुक्त रहता है, तब इसकी साक्षी संज्ञा है ॥२३॥
अन्तःकरणादि इन्द्रिय और इनकी वृत्ति अनुभव और स्मृति इनका द्रष्टा होनेसे अन्तःकरणका अध्यास होनेपर आत्माको साक्षित्व और केवल (अन्तःकरणका अध्यास नही ऐसा) हुआ तब भोक्तृत्व होता है ॥२४॥
इसके उपरान्त "ऋत पिबतौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे । छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः' इस श्रुतिको कहते है, आतप बिना आच्छादित बिंबरूप ईश्वर छाया- आच्छादित बिंबरूप जीव यह दोनो ब्रह्मए प्रकाशसे प्रकाशित है, इन दोनोंमें एकजीव भोक्ता होनेसे कर्मफलको भोक्ता है और ईश्वर द्रष्टा होनेसे भुगाता है ॥२५॥
क्षेत्रज्ञ जीवात्माको रथी, शरीरको रथ, बुद्धिको सारथी, मनको लगाम कहते है सो तू जाना ॥२६॥
इन्द्रियोको घोड़े स्वरूप जानना और यह इन्द्रियरूपी अश्व रूपादिविषयरूपी स्थानमें विचरते है, इन्द्रिय और मनके सहित यह आत्मा भोक्ता कहाता है वास्तवमें उपाधि बिना यह आत्मा शुद्ध है कदाचित् कर्तृत्व भोक्तृत्वको प्राप्त नही होता, तात्पर्य यही है कि रथी तो रथ में बैठा है, सारथी और घोडे रथ को जिधर ले जायं उधर ही जाता है और यदि दुष्ट घोडे हुए तो सारथी का भी कहना न मानकर रथ लेकर कही गढे में डाल देते है, इसी प्रकार दुष्ट इन्द्रिये इस शरीररूपी रथको विषयोमें लेजाकर पटकती है, तब सब इन्द्रियोंके सहित आत्मा दुःखी प्रतीत होता है ॥२७॥
इस प्रकारसे जो ब्राह्मण शान्ति आदिसे युक्त होकर उपासना करता है वह जिस प्रकारसे कदलीके वल्कलको बराबर उतारते चले जाओ तो उसमें वल्कलही निकलते है पश्चात सार प्राप्त होता है, इसी प्रकार पंचकोशमें क्रम से उपासना करते और उनसे चित्त हटाते तथा उन्हे असाररूप जानते हुए सबके अन्तःसारभूत आत्मा को प्राप्त होता है ॥२८॥२९॥
इस प्रकार मन को सावधान करके पंचकोश का ज्ञान करके जो मन स्थिर करता है, तब उसका चित्त निराकार परमात्मामें लग जाता है ॥३०॥
तब यह मन केवल परमात्माको ही ग्रहण करता है जो केवल अदृश्य, अग्राह्य, स्थूल सूक्ष्मादि धर्म से परे है, उसमें प्राप्त होकर निश्चल हो जाता है, फिर चलायमान नही होता ॥३१॥
श्रीराम उवाच ॥
श्रीरामचन्द्र बोल-हे भगवन्! जब श्रवणादि साधनद्वारा आत्मस्वरूपकी प्राप्ति हो जाती है तो वेदशास्त्रके जाननेवाले यज्ञशील सत्यवादी उसके श्रवण करनेमें प्रवृत्त क्यो नही होते ॥३२॥
और कोई सुनकर भी आत्माको जान नही सकते, और कोई जानकर भी मिथ्या मानते है, क्या यह तुम्हारी माया है ॥३३॥
श्रीभगवानुवाच ।
श्रीशिवजी बोले, हे महाबाहो! यह ऐसेही है इसमें कुछ सन्देह नही, मेरी त्रिगुणात्मिका मायाका उल्लंघन करना महा कठिन है ॥३४॥
जो मेरी शरणागत आकर मुझको प्राप्त हो जाते है वे ही इस माया को तरते है, हे महाभुज! जो अभ्यभक्त है और जिनकी श्रद्धा मेरे विषय नही है ॥३५॥
वे इस लोक और परलोकमें अनेक प्रकारके फलकी इच्छा करनेवाले है उनको कर्मानुसार फल मिलता है वे सुख भोगकर भी थोड़े कालमें इस लोक में प्राप्त होते है, कारण कि, उन्हे तो कर्मफलही इष्ट है और कर्मफल क्षय होनेवाला है तथा थोडा और ऐसे लोकोंमें उन फलोंको भोगते है जहां जहां अल्पसुख है और शीघ्र नष्ट हो जाता है ॥३६॥
इस बातको न जानकर जो अधम मनुष्य कर्मो को करते है, वे माताके गर्भमें उत्पन्न होकर बारंबार मृत्यु मुखमें पडते है ॥३७॥
अनेक प्रकार की योनियोंमें उत्पन्न हुए किसी एक प्राणीकी करोडों जन्मके संचित किये पुण्यसे मेरे विषे भक्ति होती है ॥३८॥
वही श्रद्धायुक्त मेरा भक्त ज्ञान को प्राप्त होता है और दूसरा करोडों जन्मभी कर्म करनेसे मुझे प्राप्त नही होता ॥३९॥
इस कारण हे राम! और सब त्यागकर केवल मेरी भक्ति करो । दुसरे और सब धर्मोका त्यागन करके एक मेरी शरणमें हो मै तुमको सब पापोसे छुड़ाकर मुक्त कर दूँगा तुम सोच कुछ मत करो ॥४०॥
हे राम! तुम कुछ कर्म करते जो भोजन करते जो हवन करते और जो देते हो तथा जो तप करते हो वह सब मेरे अर्पण करो, हे राम ! इससे अधिक मेरेमें दृढ भक्ति होनेका दूसरा साधन नही है इसका तात्पर्य यह है कि शरीर इन्द्रिय और प्राण तथा मनके जो जो धर्म है उनका त्याग करके मुझको आश्रित हो अर्थात् मुझे प्राप्त हो ॥४१॥४२॥
इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासू० शिवराघवसंवादे पञ्चकोशोपपादनं नाम चतुर्दशोध्यायः ॥१४॥