श्रीरामचन्द्र बोले- हे भगवन् ! इस देहमें यह जीव कहां वर्तमान है यह कहांसे उत्पन्न होता है और इसका क्या स्वरूप है सो आप कहिये ॥१॥
देहान्तमें यह कहां जाता है और जाकर कहां स्थित होता है और फिर देहमें किस प्रकार आता है वा नही आता सो आप कहिये ॥२॥
श्रीभगवानु उवाच ।
श्रीभगवान बोले- हे महाभाग! बहुत अच्छी बात पूछी है जो गुप्तसे भी गुप्त है, जिसे इन्द्रादि देवता और ऋषिभी कठिनतासे नही जान सकते ॥३॥
हे रघुनन्दन! मै भी यह किसी दूसरेसे नही कहना चाहता परन्तु तुम्हारी भक्तिसे प्रसन्न होकर मै कहता हूँ ॥४॥
मै ही सत्यस्वरूप ज्ञानस्वरूप अनन्त परमानन्द परमात्मा परज्योति मायासे मोहित जीवोंको न दीखनेहारा, संसारका कारण नित्य विशुद्ध, सम्पूर्णका आत्मा, सर्वान्तर्यामी, निःसंग, क्रियारहित, सब धर्मोसे परे मनसे भी परे हूँ ॥५॥६॥
मुझे कोई इन्द्रिय नही ग्रहण कर सकती, मै संपूर्णका ग्रहन करनेहारा हूँ, मै सम्पूर्ण लोकका ज्ञाता हूँ और मुझे कोई नही जानता ॥७॥
मै संपूर्ण विकारोंसे रहित हूँ, वाल्य यौवनादि परिणाम आदि विकारभी मुझमें नही है, जहां मनके सहित जाकर वाणी निवृत्त होजाती है ॥८॥
उस आनन्द्रब्रह्म मुझको प्राप्त होकर यह प्राणी फिर कहींसे भी भयको प्राप्त नही होता है ॥९॥
जो सम्पूर्ण प्राणियोंको मुझमें देखता है और मुझे संपूर्ण प्राणियोमें देखता है, वह निन्दारहित हो जाता है ॥१०॥
जिसको संपूर्ण (भूत) प्राणी आत्मारूप दीखते है उस सर्वत्र एकरूप देखनेवालेको शोक और मोह नही होता ॥११॥
यह संपूर्ण भूतोमें गुप्तरूप आत्मा प्रकाशित नही होता, परन्तु संपूर्णमें वर्तमान है, सूक्ष्मदशी श्रवण मनन, निदिध्यासन साधना करनेवाले पुरुषोंको अग्रबुद्धिसे दीखता है, दूसरे मनुष्योंको नही देखता है ॥१२॥
अनादि मायासे युक्त निर्विकार अविनाशी एक मै ही नामरूप रहित ब्रह्म जगत्का कर्ता परमेश्वर हूँ ॥१३॥
जिस प्रकार अविद्याके साक्षीभूत ज्ञानपर स्वप्नमें त्रिलोकी की कल्पना की जाती है इसी प्रकार मुझमें यह सब जगत् उत्पन्न हो दीखता. स्थिति पाता और लय हो जाता है ॥१४॥
अनेक प्रकारकी अविद्याके आश्रय होकर जीवरूपसे भी मै ही निवास करता हूँ, पांच कर्मेन्द्रिय और पांच ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त यह चारो ॥१५॥
पंचप्राण यह सब मिलकर लिंगशरीरको उत्पन्न करते है, उसी लिंगशरीर में अविद्यायुक्त यह चैतन्य का प्रतिबिम्ब पडता है, उसीको व्यवहारमें जीव क्षेत्रज्ञ और पुरुष कहते है ॥१६॥१७॥
वही जीव अनादि कालसे पुण्य पापसे निर्मित हुए स्थावर जंगमादि देहोंमे वास कर शुभाशुभ कर्मका फल भोक्ता है उसीको परलोकगति होती, तथा वही जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति इन अवस्थाओंका भोक्ता है ॥१८॥
जैसे दर्पणके मलिन होनेमें मुखभी मलीन देखता है, इसी प्रकार अन्तःकरणके दोषोंसे आत्मा विकारी दीखता है ॥१९॥
अंतःकरण और जीव इन दोनोंके परस्पर अध्यासके कारण और एकभावका अभिमान करनेसे परमात्माभी दुःखीसा प्रतीत होता है, वास्तव में सब दुःखका धर्म अन्तःकरणमें है जीवमें नही परन्तु जिस प्रकार चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब जलमे पडनेसे वह जलके चलायमान होनेसे चलायमान विदित होता है इसी प्रकार अन्तःकरणके सुख दुःख होनेसे वही जीवमें आरोपण किये जाते है ॥२०॥
जिस प्रकार कि मारवाडदेशमें दुपहरके समय सूर्यकी किरण रेतमें पडकर जलरूपसे प्रतीत होती है, उसमें केवल अज्ञानसे जाना जाता है, वो जलरूप नही, वास्तवमें संतापही करनेवाली है ॥२१॥
इसी प्रकार आत्माभी निर्लेप है, परन्तु वह मूढ बुद्धिवालोंको अविद्या और अपने दोषके कारण कर्ता भोक्ता प्रतीत होता है ॥२२॥
इस अन्नमय पिंडके स्थूल देहमें ह्रदय के विषय जीव स्थित रहता है और नखके अग्रभाग से लेकर शिखापर्यन्त व्याप्त हो रहा है, सो तू सावधान होकर सुन, वही यह जीव मै 'मनुष्य' मै 'ब्राह्मण' इत्यादि अभिमान करता हुआ इस मांसपिंडमें स्थित है ॥२३॥
नाभिसे ऊप्र और कंठ से नीचे अवकाशके स्थान को व्याप्त करके सदा स्थित रहता है, इतनेही स्थानके बीचमें ह्रदय है जिसका स्वरूप डंडी सहित कमलकलीके समान है ॥२४॥
उसका मुख नीचेको है, उसमें सूक्ष्म और सुन्दर एक छिद्र है, उसीको दहराकाश कहते है, उसमें जीव रहता है ॥२५॥
केशके अग्रभाग का सौवाँ भागकर फिर उसका भी सौवाँ भाग करके जो प्रमाण किया जाय वही सूक्ष्मता जीवकी जाननी वस्तुतः तो जीवके स्वरूपका प्रमाण नही है कि ऐसा है, और इतना है ॥२६॥
जिस प्रकार कदंबके फूलको मध्ययायी चारों और केशर होती है, इसी प्रकारसे ह्रदय स्थानसे सहस्त्रों नाडी निर्गत हुई है जो शरीर भरमें व्याप्त है ॥२७॥
वे हित और बलको देती है इस कारण उनकी हित संज्ञा है योगियोंने उन नाडियों की संख्या बहत्तर सहस्त्र कही है ॥२८॥
जिस प्रकार सूर्यसे किरण निर्गत होती है, इसी प्रकारसे वे नाडी ह्रदयसे निकली है, उनमें एकसौ एक मुख्यनाडियोंने संपूर्ण शरीरको वेष्टित कर दिया है ॥२९॥
और प्रत्येक इन्द्रियोमें दश दश नाडी है उन्हीके द्वारा विषयोंका अनुभव होता है, यह नाडिही सुख दुःख जाग्रत् स्वप्नादिके साक्षातका कारण है ॥३०॥
जिस प्रकार नदी जलको बहाती है इसी प्रकार नाडी सुख दुःखरूपकर्म फलको बहाती है । इन १०१ नाडियोंमें से एक नाडी ऊपर अनन्तनाम बहाती है ब्रह्मरंध्र तक पहुँच गई है ॥३१॥
जो अनन्त अर्थात् सुषुम्नानाम नाडी है उसमे प्राप्त होकर यह जीव मुक्त हो जाता है, जिस समय वह अन्तःकरण कामादि दोषशून्य होता है, उस समय यत्न करनेसे योगीका आत्मा इस नाडीमें प्राप्त होता है, परन्तु उस समय सद्गुरुकी कृपा और पूर्णज्ञानकी आवश्यकता है, कारण कि, ज्ञानद्वारा मुक्ति प्राप्त होती है ॥३२॥
जिस प्रकारसे राहु अदृश्य रहकर भी चन्द्रमण्डलमें दीखता है । इसी प्रकार सर्वत्र रहनेवाला आत्मा लिंग देहमें ही प्रतीत होता है ॥३३॥
जिस प्रकार घटके ले जानेसे घटाकाश भी लेकर जाया जाता है, इसी प्रकार सर्वत्र व्यापकभी जीवात्मा लिंगदेहमें ही प्रतीत होता है ॥३४॥
यद्यपि वह सर्वत्र पूर्ण और निश्चल है, परन्तु वह जाग्रत् अवस्थामें घटादि पदार्थोंका चैतन्य प्रतिबिंबयुक्त होनेसे अन्तःकरण वृत्तिसे व्याप्त होकर चंचलसा दीखता है ॥३५॥
जिस प्रकारसे सूर्य दशो दिशाओंको व्याप्त करता है इसी प्रकार निष्क्रिय और सर्व पदार्थोंमें व्याप्त लिंगदेहके सम्बन्धसे उत्पन्न हुई अन्तःकरणकी वृत्ति नाडियो द्वारा बाहर जाकर विषयोंमें प्राप्त हो उन्हे प्रकाश करती है ॥३६॥
अपने किये उन उन कर्मोंके अनुसार जाग्रतादि अवस्थामें सुख दुःखका साक्षात्कार जीव करता रहता है,सम्पूर्ण वृत्ति लिंगशरीर से उठती है, जब तक मोक्ष न हो तब तक लिंग शरीरका नाश नही होता ॥३७॥
जिस समय ज्ञानद्वारा जीव और ब्रह्मका भेद मिट जायगा और अविद्यासहित इस लिंग शरीरका नाश हो जायगा उस समय केवल आत्माका अनुभवमात्र 'अहं ब्रह्मास्मि' इस स्वरूपमें स्थिर होने से ही मुक्त होता है ॥३८॥
जिस प्रकार घटके उत्पन्न होते ही घटाकाश उसमे प्राप्त हो जाता है और उसके नष्ट होनेसे वह अपने स्वरूपमें अवस्थान करता है, इसी प्रकार मायाके नष्ट होनेसे आत्मा अपने स्वरूपमें अवस्थान करता है ॥३९॥
जब जाग्रत् अवस्थामें भोग देनेवाले कर्मोका क्षय होकर स्वप्नकालमे भोग देनेवाले कर्म जाग्रत समयके देह गेहादि विषयके साक्षात करनेवाले ज्ञानको छिपाकर जब जाग्रत होते है तब (यह जीव क्रिडा करो) इस प्रकारसे परमेश्वरकी इच्छासे पूर्व अनुभव किया हुआ स्वप्नसमयके विषय का जाग्रत होनेपर यह मायावी अविद्योपाधि जीव माया कीनिद्रा के योगसे जाग्रत अवस्थामें भी स्वप्नसे भिन्नस्वरूप अवस्थाकी ओर देखता है ॥४०॥४१॥
घटपटादि विषय, बुद्धि आदि इन्द्रिय और स्वप्नसमयके भोग देनेवाले पदार्थ की समान सब सृष्टि अन्तःकरणाने कल्पना करी है, जिस प्रकार इकला मनुष्य स्वप्न में अनेक मनुष्य देखता, भोग भोगता और संसार की सब रचना भिन्न भिन्न जानता है, यथार्थ में एकही है, इसी प्रकार वास्तविक आत्मा है, परन्तु अन्तःकरणकी कल्पना से यह जगत् अनेक भावसे दीखता है ॥४२॥
इन सबको देखनेहारा स्वयंज्योति आत्मा साक्षीरूपसे सबमे वर्तमान है ॥४३॥
इस अवस्थामें अन्तःकरणादि सर्व पदार्थों की वासना भावनासे की हुई असत्य होनेसे वह वासनारूपी ही है और परमात्मा उसही स्थानमें वासनामात्र से साक्षी है ॥४४॥
जिस प्रकार जाग्रत् अवस्थामें कर्ता कर्म किया इत्यादि संपूर्ण कारणोंसे युक्त व्यवहार चलता है इसी प्रकार पूर्व जन्मके किये कर्मोकी प्रेरणासे वासनारूप प्रपंच है परन्तु जाग्रत् अवस्थामें प्रपंचका व्यवहार समर्थ होता है और स्वप्न अवस्थामें कल्पित है यही इसमें भेद है ॥४५॥
सम्पूर्ण बुद्धि वृत्तिका साक्षी आत्मा स्वयंही प्रकाश करता है, उस साक्षीका जो वासनामात्र साक्षीपना है उसे स्वप्न कहते है ॥४६॥
बाल्य अवस्थामें जाग्रत् जो कर्म स्तनपान कन्दुकक्रीडा आदि किये है, उस समय उसीकी वासना ह्रदयमें प्रबल रहती है, इस कारण वे ही स्वप्न दीखते है ॥४७॥
और तरुण अवस्थामें इन्द्रिय अपने व्यापारमें कुशल हो जाती है यह प्राणी अनेक व्यापारमें व्यग्र हो जाता है, अध्ययन, कृषि, व्यापार आदिकी वासना ह्रदयमें अत्यन्त दृढ हो जाती है, इस कारण तद्रूप ही स्वप्न देखता है ॥४८॥
और जो वृद्धावस्थामें परलोक जानेके निमित्त दान धर्म विद्यादि दान ऐसे उत्तम कर्म करते है उनके ह्रदयमे यह वासना दृढ हो जाती है तो प्रायः यहभी इसी प्रकार के स्वप्न देखा करते है, कि हमने दान किया, इस प्रकार लोककी प्राप्ति हुई ॥४९॥
जिस प्रकारसे श्येन पक्षी आकाशमें भ्रमण करते २ जब थक जाता है, तब विश्रामका और कोई उपाय नही देखकर निज पंखो को सकोडकर अपने घोसलेंमे विश्राम लेता है ॥५०॥
इसी प्रकार जाग्रत और स्वप्न अवस्थामें विचरनेसे जब आत्मा श्रांत होता है तब संपूर्ण इन्द्रियोंके शिथिल होने से सब साधनाओंको लयकर देता है अर्थात संपूर्ण इन्द्रियोंके व्यापारको समाप्तकर निद्रित हो जाता है ॥५१॥
नाडियोंके मार्गसे इन्द्रियकी वासना को आकर्षणकर जाग्रत और स्वप्न अवस्थाके सब कार्य समाप्तकर आत्मा लीन हो जाता है ॥५२॥
जिस समय यह मायासे आच्छादित चैतन्य अव्याकृत स्वरूपमें लय होता है, उस समय सम्पूर्ण प्रपंच लय हो जाता है, परन्तु यह लय आत्यंतिक नही है, इसमें केवल कार्यरूपका नाश होता है कारण रूपवासना बनी रहती है ॥५३॥
जिस पुरुषकी किसी स्त्री को अत्यंत इच्छा हो, और वह उसे प्राप्त हो जाय उसके सम्भोगसे जो सुख हो जाता है उसकी सीमा है परन्तु उससे कही अधिक सुख निद्रा अवस्थामें जीवको आनन्दमय कोशमें प्राप्त होनेसे होता है जब जीवको ब्राह्य विषयका ज्ञान नही होता, वह अन्तर अर्थात् मोक्षकी अवस्थाकी समान जिसमें विषयवासना अत्यन्त निवृत्त होती है, निवृत्त वासनावाला भी नही होता ॥५४॥
निद्रावस्थामें जीवात्मा जब ईश्वरको प्राप्त होता है तब जाग्रत आदि अवस्थामें जैसे ईश्वर से भिन्न रहता है तैसा भी भिन्न रहता है, तब भी भेद नही जाता ऐसा होनेसे ही वह उस समय दुःख रहित होता है, क्योकि कारणात्मामें उसका साम्य माना जाता है एकत्व पाता है, इस कारण औपचारिक है ॥५५॥
जो भी उस अवस्थामें अविद्याकी सूक्ष्मत्व वृत्ति आनेसे जैसे सुख अनुभव करता है उस सुखको जैसे, 'सुखमहमस्वाप्सम् अर्थात मै सुखसे सोआ' नकिंचिदवेदिषम' और दूसरा कुछ भी न जाना केवल अज्ञानका ही अनुभव किया ॥५६॥
परन्तु यह अज्ञानभी साक्षी आदिकी वृत्तिसे अनुभव किया जाता है, कि सुखसे सोया यदि साक्षी न हो तो सुखसे सोनेकी स्मृति किसी प्रकार नही हो सकती, क्योंकी गाढ निद्रामें सोते समय तो उसे सुखका अनुभव होता नही, उसके पश्चात जाग्रत होकर साक्षीके द्वारा जानता है ॥५७॥
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति यह तीन अवस्था जैसी इस लोककी है तैसी देवलोक की है, सुषुप्तिके अन्तमें जब जाग्रत अवस्था आती है तो अपने कारणरूप जीवके प्रारब्धके कर्मसे फिर इन्द्रिये इस प्रकार जाग उठती है जिस प्रकार अग्निसे विस्फुलिंग (चिनगारियां) उठने लगती है इसी प्रकार सूक्ष्मरूपमें लीन हुई इन्द्रियमे उठती है ॥५८॥
जिस प्रकार जलभरा हुआ घडा जलमें डुबादो और यदि उसे फिर निकालो तो वह उस जल से भराही आताहै इसी प्रकार से यह जीवात्मा इन्द्रिय आदि सहित कारणमें लयको प्राप्त हो उन इन्द्रियों सहित ही जाग्रत अवस्थाको प्राप्त होता है ॥५९॥
विज्ञानात्मा (जीव) कारणात्मा (ईश्वर) यह दोनों वास्तवमें एकही रूप है परन्तु अविद्याके प्रपंच से उनमें भेद प्रतीत होता है, जब यह अविद्या नष्ट होजाय तो ऐसा नही होता उस समय दोनों एकरूप हो जाते है ॥६०॥
जिस प्रकार से एक ही सूर्य जलादि पदार्थों से प्रतिबिंबित होनेसे अनेकरूप दीखता है और जलके चलायमान होनेसे सूर्यादिमें ही चञ्चलता प्रतीत होती है, इसी प्रकार कूटस्थ एक (जीवात्मा) ईश्वर एकही है, और अनेक देहोंमे प्रतिबिम्बित जीवरूपसे प्रविष्ट होकर अनेकरूप और गमनागमनादिरूपसे दीखता है ॥६१॥
आत्मा देहादि उपाधिसे रहित स्वप्रकाश है, परन्तु स्वरूपकी स्मृति लोप करनेवाली मायाने विस्मृति को प्राप्त कर दिया है, इससे सब प्रपंच इस में अज्ञानसे विदित होता है, कारण कि, यह माया तो (अघटितघटनापटीयसी) न होनेवाली बातको भी करके दिखा देती है । माया के योग से आत्मामें कितने ही विरुद्ध कर्म दीखे परन्तु मायाके दूर होते ही जीव ईश्वर और निर्विकार हो जाता है, हे दशरथकुमार! यह तुमसे जीवका स्वरूप वर्णन किया ॥६२॥६३॥
इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे शिवराघवसंवादे जीवस्वरूपकथनं नाम दशमोऽध्यायः ॥१०॥