श्रीरामचंद्र बोले, दे देवदेव! महेश्वर आपको नमस्कार है आप उपासना की विधि और उसका देशकाल वर्णन कीजिये, कि किस समय किस प्रकार उपासना की जाय ॥१॥
ईश्वर उवाच ।
हे भगवन् ! हमारे ऊपर आपकी कृपा होय तो उपासनाका अंग और नियम कहो, फिर शिवजी बोले हे राम! मै तुमसे उपासनाकी विधि और उसका देश काल कहता हूँ तुम मन लगाकर सुनो । जितने देवता है यह सब मेरे ही रूप है वास्तवमें मुझसे भिन्न नही ॥२॥३॥
जो दूसरे देवताओंके भक्त है, और श्रद्धापूर्वक उनका पूजन करते है, हे राजन!! वे पुरुष मेआ ही भेदबुद्धिसे यजन करने वाले है ॥४॥
जिस कारण कि, इस सम्पूर्ण संसारमें मेरे सिवाय और कुछ नही है, इसीसे मै सब क्रियाका भोक्ता और सबका फल देनेवाला हूँ ॥५॥
जो पुरुष विष्णु, शिव, गणेशादि जिस भावसे मेरी उपासना करते है, उसी भावनाके अनुसार उसी देवताके रूपसे मै उन्हे वांछित फल देता हूँ ॥६॥
विधिसे अविधिसे किसी प्रकारसे हो जो मेरी उपासना करते है उनको मै प्रसन्न होकर फल देता हूँ, इसमें कोई संदेह नही ॥७॥
यद्यपि वह दुराचारी है परन्तु वह अनन्य होकर मेरा भजन करता है उस पुरुषको साधुही मानना चाहिये, और पुण्यवान है यह भक्तिकी महिमा दिखाई है परन्तु यह निश्चय जानना चाहिये कि अनन्यभक्तिवाला किसी प्रकार दुराचारी नही हो सकता, कारण कि अनन्य भक्तिका और स्थानमें मन नही जाता ॥८॥
जो एकनिष्ठबुद्धि होकर जीवात्मा परमात्माको एकही रूप जानता है, अर्थात् जीवरूपभी मेरेको ही जानता है और अनन्य बुद्धिसे मेरा भजन करता है उसको पाप स्पर्श नही करता बहुत क्या उसे ब्रह्महत्याभी स्पर्श नही करती ॥९॥
उपासनाकी विधि चार प्रकारकी है संपत्, आरोप, संवर्ग और अध्यास ॥१०॥
अल्प वस्तुकाभी गुणयोगसे मन की वृत्तिसे अनन्त गुणोंकी भावनासे चिंतन करना जैसे कि, मूर्तिमें अनंत गुणविशिष्ट शिव तथा विष्णुका ध्यान करना इसका नाम संपत है ॥११॥
एक देश वा अंगमें सम्पूर्ण उपास्य वस्तु का आरोप करके जो उपासना करनी है उसे आरोप कहते है, जैसे ओंकारकी उद्गीथसाम रूप से उपासना की जाती है ॥१२॥
आरोप और अध्यास इनका स्वरूप बहुधा एकसा है, भेद इतनाही है कि बुद्धिपूर्वक किसी एक वस्तुमें विवक्षित धर्मका आरोप करके उसकी उपासना करना, जैसे स्त्रीपर अग्निका आरोप (अर्थात्) स्त्रीको अग्निरूप मानना यह अभ्यास है ॥१३॥
कर्मयोगसे उपासना करने का नाम संवर्ग है अर्थात् सम्पूर्ण भूतोंको उपासनाके योगसे वशमें करना, जैसे प्रलय कालमें संवर्त नामक, वायु अपनी शक्तिसे सब भूतोंको वश करती है ॥१४॥
गुरुसे प्राप्त हुए ज्ञानसे देवतामें और अपनेमें भेद न मानना और अन्तःकरणसे देवताके समीप प्राप्त होना और अन्तःकरणसे ही सब पूजन कल्पित करना, इसका नाम अंतरंग उपासना है, और इसके उपरांत दूसरी विधिसे बहिरंग उपासना कहाती है ॥१५॥
तब इस प्रकार किसी की उपासना करनी और कहांतक करनी किसी भी देवताकी उपासना करते हुए, ध्यानसे उस देवताके स्वरूपका जो ज्ञान होता है उस ज्ञानको विजातीय ज्ञानसे शिवका ध्यान करते हुए कामिनी के ध्यानसे-मध्यमें विच्छिन्न न होकर व्यवधानरहित ज्ञानपरम्परासे-निदिध्यासना करके ध्यानयोग्य देवताओंमें अपनी बुद्धि लगाकर एकरूपका साक्षात् होने तक उपासना करता रहे ॥१६॥
संपदादि जो चार उपासना वर्णन की है, यह दृढ बुद्धिकी उपासना तथा उपासनाकी परम अवधि है और सगुण उपासना इस प्रकार है कि, मूर्तिकी उपासना करनेके समय उसके प्रत्येक अंगोमें अक्षय दृष्टि लगाकर उपासना करनी, इस उपासनेके अंगोको श्रवण करो ॥१७॥
उपासनोंके योग्य देशोंका कथन करते है कि, तीर्थ और क्षेत्रादिकोमें ही जानेसे उपासना होगी यह विचार न करे, क्षेत्रादिकोमें जानेकी श्रद्धा त्याग दे, और जहां अपना चित्त स्वच्छ और एकाग्रतायुक्त होय तहां ही सुखसे बैठकर उपासना करे ॥१८॥
कम्बल म्रुदुकपास वस्त्र अथवा मृगचर्मपर स्थित होकर एकान्त देशमें स्थितहो समान ग्रीवा और शरीरको सरल करेंगे ॥१९॥
विधिपुर्वक भस्म धारणकर और सम्पूर्ण इन्द्रियोंको रोककर तथा भक्तिपूर्वक अपने गुरुको प्रणाम करके, ज्ञानशास्त्रद्वारा ज्ञानकी प्राप्तिके निमित्त भक्तिसे प्राणायाम करे ॥२०॥
जिसका अन्तःकरण मूढ और विवेकशून्य है उसकी इन्द्रियें दुष्ट घोडोंकी समान है, अर्थात् जैसे दुष्ट घोड़ा सारथीके वशमें नही आता तैसे दुष्ट इन्द्रिय वाले उन्हे वश नही कर सकते ॥२१॥
और जो ज्ञानसम्पन्न है उनके यत्न करने से सम्पूर्ण इन्द्रिये मनके सहित वशमें हो जाती है, जिस प्रकार सुशिक्षित अश्व सारथीके वशमें हो जाता है ॥२२॥
और जो विवेकशून्य चंचलचित्त बाह्य और अन्तर शोचसे हीन और अनुभवज्ञानरहित है वे उस स्थानको नही प्राप्त होते परन्तु निरंतर संसारमें ही भ्रमण करते है ॥२३॥
और जो ज्ञानी स्थिरचित्त बाह्य आभ्य्तर पवित्रतासे युक्त है वे उस स्थानको प्राप्त होते है जहांसे फिर आना नही होता (न स पुनरावर्तते २) यह श्रुतिमें लिखा है ॥२४॥
जिसका विज्ञानरूपी सारथी मनरूपी लगाम धारण किये है, इन्द्रियरूपी घोड़े जुते शरीररूपी रथमे जो बैठा है वह संसाररूपी मार्गसे पारहो परमपद (मोक्ष) स्थानपर पहुँच जाता है ॥२५॥
ह्रदयकमल कामादिदोष रहित शमदमादिगुणसम्पन्न स्वच्छ और शोकरहित करके उसमें मेरा ध्यान करना उचित है ॥२६॥
जो अचिन्त्यस्वरूप सीमारहित है, जिससे श्रेष्ठ कोई दूसरा नही है, जो नाशरहित कल्याणस्वरूप आदिअन्तशून्य प्रशांत और सबका कारण है ॥२७॥
सर्वव्यापक सच्चिदानन्दस्वरूप रूपरहित उत्पत्तिशून्य आश्रय युक्त मुझ ब्रह्मरूपको शुद्ध स्फटिक मणिकी समान शरीर और अर्धांगमे पार्वतीको धारण किये ॥२८॥
व्याघ्रचर्म ओढे, नीलकंठ, त्रिलोचन, जटाजूट धारण किये चन्द्रमा शिरपर धरे, नागोंका यज्ञोपवीत पहरे ॥२९॥
व्याघ्रचर्मकाही उत्तरीय (डुपट्ट) ओढे, सर्वश्रेष्ठ भक्तोंके अभयदाता, पीठकी ओरके ऊँचे दोनों हाथोंमें मृग और परशु धारण किये, सब अंग में विभूति लगाये, तथा सम्पूर्ण आभूषणोंसे भूषित ॥३०॥
इस प्रकारसे आत्माकी अरणी और प्रणवको उत्तर अरणी करके उसका मथन करता हुआ मेरा ऊपर कहे अनुसार ध्यान करे तौ यह मेरा साक्षात्कार पाता है, जब यज्ञको करते है तब अग्निके निमित्त खैर वा शमीकी दो लकडी ले ऊपर नीचे रख अग्निके निमित्त उसे मथते है ॥३१॥
वेदवचन और शास्त्रोंके वचनसे मुझे कोई नही पा सकता परन्तु जो एकाग्रचित्तसे सदैव मेरा ध्यान करता है, मै उसे प्राप्त होता हूँ और उसे फिर त्याग नही करता ॥३२॥
जो पापसे पराङ्मुख नही जिसकी तृष्णा शान्त नही श्रवण मनन निदिध्यासनसे जिसका मन समाधान नही है जिसका मन चंचल है ऐसा पुरुष केवल शास्त्रके अध्ययनसे मुझे प्राप्त नही कर सकता ॥३३॥
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाका प्रपंच जिस साक्षीरूप अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूपके द्वारा प्रकाशित होता है, वह ब्रह्म मै हूँ, ऐसा यथार्थ जाननेसे यह सम्पूर्ण बंधनोंसे मुक्त हो जाता है ॥३४॥
तीनों अवस्थामें जो भोग पदार्थ जो भोक्ता और जो भोग्य वस्तु है, यह तीनों ब्रह्मकी ही सत्तासे कल्पित है, इनका प्रकाशक गति करनेहारा सदाशिव मै ही हूँ ॥३५॥
इस प्रकार निर्गुण कथन कर अब फिर मद अधिकारियोंको सगुणरूप का उपदेश करते है, मध्याह्नकालके करोडों सूर्यकी समान तेजयुक्त और करोडों चन्द्रमाकी समान शीतल सूर्य चंद्रमा अग्नि जिसके नेत्र है उनके मुखकमलका स्मरण करे ॥३६॥
एक ही परमात्मा सम्पूर्ण भूतोंमे गुप्त है, सर्वव्यापी और सब भूतोंका अन्तरात्मा है, सबका अध्यक्ष और सब भूतोंमें निवास करनेवाला सबका साक्षी चित्तकी प्रेरणा करनेवाला निर्लेप और निर्गुण है ॥३७॥
स्वाधिक सब भूतोंका आत्मा वह एकही देव है, मायारूप प्रपंचका बीज प्रगट करता है, वह पुरुष मै ही हूँ मुझको जो धीर पुरुष शास्त्र और आचार्यके उपदेशसे साक्षात्कार करते है उन्हीको निरन्तर शान्ति और कैवल्य मुक्ति होती है, दूसरों को नही ॥३८॥
जिस प्रकार से एक ही अग्नि सब संसारमें प्रविष्ट होकर उन काष्ठ लोह आदिमें सीधे टेढे चतुष्कोण आदिरूपसे उसी वस्तुके आकारसी हो ही है, इसी प्रकार सबका अन्तरात्मा एकही है, और शरीरमें प्राप्त होनेसे उसीके आकारसा प्रतीत होता है,यद्यपि उपाधिके वशीभूत होनेसे भिन्न २ प्रकार का प्रतीत होता है, तथापि सर्व लोकके दुःख से वह दुःखी और सुखसे सुखी नही होता ॥३९॥
जो विद्वान ज्ञानी मुझको सर्वान्तर्यामी महान व्यापक स्वप्रकाश, मायासे रहित आत्मस्वरूप जानता है, वही संसार बंधनसे मुक्त होता है, इसके सिवाय मुक्तिके प्राप्त होने का दूसरा उपाय नही है, तथा च श्रुति (वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात ॥ तमेव विदित्वातिमृत्युनेति नान्यः पंथा विद्यतेयनाय ) ॥४०॥
प्रथम सृष्टिके आरंभ में मै ब्रह्माको उत्पन्न करके उसके निमित्त वेद को उपदेश करना वही स्तुतिके योग्य पुराण पुरुष मै हूँ, जो इस निश्चयसे मुझे जानते है, वे मृत्यु के मुखसे छूट जाते है तथा च श्रुतिः (या वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदाश्चं प्रहिणोति तस्मै) इत्यादि श्रुतिमें प्रसिद्ध है ॥४१॥
इस प्रकार शान्ति आदि गुणोंसे युक्त हो जो मुझको तत्त्वसे जानता है वह दुःखोसे छूटकर अन्तमें मुझको प्राप्त हो जाता है ॥४२॥
इति श्रीपद्मपुराणे शिवगीतासुपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे शिवराघवसंवादे उपासनाज्ञानफलं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥